
What is Dhamma? धम्म क्या है | बुद्ध के उपदेश
1) जीवन की पवित्रता बनाते रखना धम्म हैं।
(i) 1. तीन तरह की जीवन की पवित्रताएं हैं.. शारीरिक पवित्रता किसे कहते हैं?
(ii)1. पवित्रता तीन तरह की है... शरीर की पवित्रता... वाणी की पवित्रता तथा मन की पवित्रता।
2. शरीर की पवित्रता किसे कहते हैं?
3. एक आदमी जीव-हिंसा से विरत रहता है, चोरी से विरत रहता है, काम मिथ्याचार से विरत रहता हैं। यह 'शरीर की पवित्रता'।
2. जीव-हिंसा, चोरी, काम-मिथ्याचार, झूठ और नशा पैदा करने वाली शराब आदि नशीली चीजों का ग्रहण करना।
3. ये पांच तरह की दुर्बलताएं हैं जिनसे साधना में बाधा पड़ती हैं।
4. जब साधना की ये पांचो बाधाएं दूर हो जाती हैं, तो चार स्मृति-उपस्थानों की उत्पत्ति होनी चाहिये।
5. एक भिक्षु काया के प्रति कायानुपश्ना करता हुआ विहार करता है, प्रयत्नशील, ज्ञानवान, स्मृतिमान और लोक में विद्यमान लोभ तथा दौर्मनस्य को काबू में किये हुए।
6. वह वेदनाओं के प्रति वेदनानुपश्यी हो विहार करता हैं।
7. वह चित्त के प्रति चित्तानुपश्यी हो विहार करता हैं.
8. वह चित्त में उत्पन्न होने वाले विचारों (धम्मों) के प्रति धम्मानुपश्यी हो विहार करता है, प्रयत्नशील, ज्ञानवान, स्मृतिमान और लोक में विद्यमान लोभ तथा दौर्मनस्य को काबू में किये हुए।
9. अब साधना की ये पांच बाधाएं दूर हो जाती हैं तो चार स्मृति- उपस्थानों की उत्पत्ति होनी चाहिए।
(iv)1. ये तीन घात हैं; शील-घात, चित्त-घात और दृष्टि-घात।
3. चित्त-घाट किसे कहते हैं?
4. एक आदमी लोभी होता है, दौर्मनस्य-युक्त होता है। यह चित्त का घात हैं।
5. दृष्टि-घाट क्या हैं?
6. यहां कोई आदमी इस प्रकार की गलत-धारणा मिथ्या-दृष्टि रखता है कि दान देने में, त्याग करने में, परित्याग करने में कोई पुण्य नहीं; भले-बुरे कर्म का कुछ फल नहीं होता; न यह लोक है और न परलोक है; न माता है, न पिता है और न स्वोत्पन्न प्राणी हैं; लोक में कोई ऐसे श्रवण-ब्राह्मण नहीं है जो शिखर तक जा पहुंचे हों, जिन्होंने पूर्णता लाभ कि हो, जिन्होंने अपनी ही अभिज्ञा से परलोक का साक्षात्कार किया हो और जो उसकी घोषणा कर सकते हो। भिक्षुओं, यह दृष्टिघात हैं।
7. भिक्षुओं, यह शील-घात, चित्त-घात के और दृष्टि-घाट के ही कारण ऐसा होता है कि मरने के अनन्तर प्राणी दुर्गति को प्राप्त होते हैं। ये तीन दृष्टिघात हैं।
8. भिक्षुओं! ये तीन लाभ हैं। कौन से तीन? शील-लाभ, चित्त-लाभ तथा दृष्टि-लाभ।
9. शील-लाभ क्या हैं।
10. एक आदमी प्राणी-हिंसा से विरत रहता है..कठोर बोलने से विरत रहता हैं और व्यर्थ बोलने से विरत रहता हैं। यह शील-लाभ है।
11. चित्त-लाभ क्या है?
12. एक आदमी न लोभी होता है और न दौर्मनस्य-युक्त होता है। यह चित्त-लाभ हैं।
13. और दृष्टि-लाभ क्या हैं?
14. यहां कोई आदमी इस प्रकार की गलत-धारणा, मिथ्या-धारणा नहीं रखता हैं, कि दान देने में, त्याग करने में, परित्याग करने में कोई पुण्य नहीं, भले-बुरे कर्म का कुछ फल नहीं होता, न यह लोक हैं और न परलोक है; न माता है, न पिता है और न स्वोत्पन्न प्राणी हैं, लोक में कोई भी श्रमण-ब्राह्मण नहीं हैं जो शिखर तक जा पहुंचे हों, जिन्होंने पूर्णता लाभ की हो, जिन्होंने अपनी ही अभिज्ञा से परलोक का साक्षात्कार किया हो और जो उसकी घोषणा कर सकते हो। भिक्षुओं यह दृष्टि-लाभ हैं।
15. भिक्षुओं, इन्हीं तीन लाभों के कारण शरीर का नाश होने पर मरने के अनन्तर प्राणी सुगति को प्राप्त होते हैं। भिक्षुओं, यह तीन लाभ है।
2) जीवन में पूर्णता प्राप्त करना धम्म है
1. ये तीन पूर्णताये हैं।
2. शरीर की पूर्णता, वाणी की पूर्णता तथा मन की पूर्णता।
3. मन की पूर्णता कैसे होती हैं?
4. आस्त्रवों अथवा चित्त मलों का पूरा क्षय हो गया होने से, इसी जीवन में संपूर्ण चित्त-विमुक्ति का अनुभव करने से- प्रज्ञा विमुक्ति जो कि आस्त्रवों से विमुक्ति हैं- उसे प्राप्त कर, उसी में विहार करता हैं। यही मन की पूर्णता कहलाती हैं। ये तीन पूर्णताएं हैं।
5. और दूसरी भी पारमिताएं हैं। भगवान बुद्ध ने उन्हें सुभूति को समझाया था।
6. सुभूति- बोधिसत्व की दान-पारमिता क्या हैं?
7. तथागत- बोधिसत्व चित्त की सभी अवस्थाओं का ज्ञान रखकर जान देता है, अपनी भीतरी वा बाह्य, और उन्हें सर्वसाधारण के लिए परित्याग कर 'बोधि' को समर्पित करता हैं। वह दूसरों को भी ऐसा ही करने की प्रेरणा देता हैं। किसी भी वस्तु में उसकी आसक्ति नहीं।
8. सुभूति- एक बोधिसत्व की शील-पारमिता क्या हैं?
9. तथागत- वह स्वयं दस कुशल-प़थों में विचरता है और दूसरों को भी ऐसा ही करने की प्रेरणा करता हैं।
10. सुभूति- बोधिसत्व की शांति पारमिता क्या हैं?
11. तथागत- वह स्वयं क्षमा-शील हो जाता है तथा दूसरों को भी क्षमा शील रहने की प्रेरणा करता हैं।
12. सुभूति- बोधिसत्व की वीय्र्य-पारमिता क्या हैं?
13. तथागत- वह सत्य पांचों पारमिताओं की पूर्ति में संलग्न रहता है, तथा दूसरों को भी ऐसा ही करने की प्रेरणा करता हैं।
14. सुभूति- बोधिसत्व की समाधि की-पारमिता क्या हैं?
15. तथागत- वह अपने कौशल से ध्यानों का लाभ करता है, किंतु तत्सम्बन्धिन रूप-लोकों में उसका जन्म नहीं होता। वह दूसरों को भी ऐसा ही करने की प्रेरणा करता है।
16. सुभूति- बोधिसत्व की प्रज्ञा-पारमिता क्या हैं?
17. तथागत- वह किसी भी धर्म (भौतिक वा अभौतिक वस्तु) में नहीं फसता, वह सभी धर्मों के स्वभाव पर विचार करता हैं। वह दुसरों को भी सभी धर्मों के स्वभाव पर विचार करने की प्रेरणा देता है।
18. इन पारमिताओं का विकास करना धम्म हैं।
3) निर्वाण प्राप्त करना धम्म हैं।
1. भगवान बुद्ध ने कहा हैं; निर्वाण से बढ़कर सुखद कुछ नहीं।
2. भगवान बुद्ध द्वारा उपदिष्ट सभी धम्मो में निर्वाण का प्रमुख स्थान हैं।
3. निर्वाण क्या हैं? भगवान बुद्ध ने निर्वाण का जो अर्थ किया है, वह उस से सर्वथा भिन्न हैं जो उनेक पूर्वजों ने किया है।
4. उनके पूर्वजों की दृष्टि में निर्वाण का मतलब था 'आत्मा' का मोक्ष।
5. निर्वाण के चार स्वरूप थे: 1) लौकिक, (खाओ, पिओ, और मोज उड़ाओ): 2) योगिक, 3) ब्राह्मणी, 4) औपनिषदिक
6. ब्राह्मणी और औपनिषदिक निर्वाण में एक समानता थी। निर्वाण के दोनों स्वरूपों में 'आत्मा' की एक स्वतंत्र सत्ता स्वीकार की गई थी- यह सिद्धांत भगवान बुद्ध को अमान्य ही था। इसलिये भगवान बुद्ध को निर्वाण के ब्राह्मणी और औपनिषदिक स्वरूप का खण्ड़न करने में, उसे अस्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं हुई।
7. निर्वाण की भौतिक कल्पना इतनी अधिक जड़ता लिए हुए थी कि वह कभी भी बुद्ध के गले से उतर ही न सकती थी। इसमें कुछ भी अध्यात्मिक तत्व नहीं था।
8. भगवान बुद्ध को लगता था कि निर्वाण के ऐसे स्वरूप को स्वीकार करना किसी भी मानव की बड़ी से बड़ी हानि करना हैं।
5) यह मानना कि सभी संस्कार अनित्य हैं धम्म हैं
1. अनित्यता के सिद्धांत के तीन पहलू हैं।
2. अनेक तत्वों के मेल में बनी हुई चीजें अनित्य हैं। 3. व्यक्तिगत रूप से प्राणी अनित्य हैं।
4. प्रतीत्य-समुत्पन्न वस्तुओं का 'आत्म-तत्व' अनित्य हैं।
5. अनेक तत्वों के मेल से बनी हुई चीजों का अनित्यता की बात महान बौद्ध दार्शनिक असंग ने अच्छी तरह समझाई हैं।
6. सभी चीजें, असंग का कहना हैं, हेतुओं तथा प्रत्ययों से उत्पन्न हैं। किसी का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं हैं। जब हेतु-प्रत्ययों का उच्छेद हो जाता है वस्तुओं का अस्तित्व नहीं रहता।
7. प्राणी का शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु नामक चार महाभूतों का परिमाण हैं। जब इन चारों महाभूतों का पृथक्करण हो जाता हैं, प्राणी नहीं रहता।
8. 'अनेक तत्वों के मेल से बनी हुई चीजें अनित्य हैं' कहने का अभिप्राय यही हैं।
9. जीवित प्राणी की अनित्यता की सर्वश्रेष्ठ व्याख्या यही है कि वह है नहीं, वही हो रहा है।
10. इस अर्थ में भूत काल का प्राणी अपना जीवन व्यतीत कर चुका, न वह वर्तमान में कर रहा हैं और न भविष्य में करेगा। भविष्यता काल का प्राणी रहेगा, लेकिन न रहा हैं और न रहता है। वर्तमान काल का प्राणी रहता है, लेकिन न रहा है, और न रहेगा। 11. संक्षेप यही है कि मानव निरंतर परिवर्तन-शील है, निरंतर संवर्धनशील हैं। वह अपने जीवन के दो भिन्न क्षणों में भी एक ही नहीं हैं।
12. इस सिद्धांत का तीसरा पहलू एक सामान्य आदमी के लिए समझ सकना कुछ कठिन हैं।
13. यह समझ लेना कि आदमी किसी न किसी दिन अवश्य मर जायेगा, बड़ा आसान हैं।
14. किंतु यह समझ सकना कि किस प्रकार एक प्राणी जीते जी परिवर्तित होता रहता है, उतना ही आसान नहीं।
15. यह कैसे संभव हैं? भगवान बुद्ध का उत्तर था- यह इसी लिये संभव है कि हर चीज अनित्य हैं।
16. आगे चलकर इसी 'अनित्यता' के सिद्धांत ने शून्यवाद का रूप धारण कर लिया है।
17. बौद्ध 'शून्यता' का मतलब सोलह आने निषेध नहीं हैं। इसका मतलब इतना ही है कि संसार में जो कुछ है वह प्रतिक्षण बदल रहा हैं।
18. बहुत कम लोग इस बात को समझ पाते हैं कि 'शुन्यता' के ही कारण सभी कुछ सम्भव है, इसके बिना संसार में कुछ भी सम्भव नहीं रहेगा। सभी दूसरी बातें चीजों के अनित्यता के स्वभाव पर ही निर्भर करती हैं।
19. यदि चीजें परिवर्तन-शील न हों बल्कि स्थायी और अपरिवर्तनशील हों, तब एक रूप में किसी दूसरे रूप में जीवन का सारा विकास ही रुक जायेगा, किसी में कुछ भी परिवर्तन न हो सकेगा, किसी की कुछ भी उन्नति न हो सकेगी।
20. यदि आदमी मर जाते या उन में परिवर्तन आ जाता है और फिर वे सब उसी अवस्था में अपरिवर्तित स्थिति में रहते, तो क्या हालत होती? मानव-जाति की प्रगति सर्वथा रुक जाती।
21. यदि 'शून्य' का मतलब 'अभाव' माना जाये तो कई कठिनाइयां उत्पन्न हो जाती हैं।
22. 'शून्य' उस बिंदु के समान है, जो कि एक पदार्थ है किंतु जिसकी कोई लम्बाई-चौड़ाई नहीं।
23. भगवान बुद्ध का यह उपदेश था कि सभी चीजें अनित्य हैं।
24. इस सिद्धांत में से हमें क्या शिक्षा मिलती हैं? यह अधिक महत्व का प्रश्न हैं।
25. इस सिद्धांत में हमें जो शिक्षा मिलती हैं, वह सरल हैं। किसी वस्तु के प्रति आसक्त न होओ।
26. यह अनासक्ति संपत्ति के प्रति अनासक्ति, सम्बन्धियों, मित्रों तथा परिचितों के प्रति अनासक्ति का ही अभ्यास करने के लिए यह कहा गया हैं कि सभी चीजें अनित्य हैं।
5. 'कर्म' को मानव जीवन के नैतिक संस्थान का आधार मानना धम्म हैं
1. भौतिक संसार में एक प्रकार का नियम दिखाई देता है। निम्नलिखित बातें इसकी साक्षी है।
2. आकाश के नक्षत्रों के चलन में एक प्रकार का नियम है।
3. ऋतुओं के नियमानुसार आवागमन में भी एक नियम हैं।
4. बीजों से वृक्ष उत्पन्न होते हैं, वृक्षों में फल लगते है और फलों से फिर बीच प्राप्त होते है-- इस में भी एक प्रकार का नियम हैं।
5. बौद्ध परिभाषा में यह सब 'बीज-नियम' तथा 'ऋतु-नियम' आदि कहलाते हैं।
6. इसी प्रकार क्या समाज में भी कोई नैतिक-क्रम हैं? यदि है तो यह कैसे उत्पन्न हुआ है? इस का संरक्षण कैसे होता है?
7. जो 'ईश्वर' में विश्वास रखते हैं, उन्हें इस प्रश्न का उत्तर देने में कोई कठिनाई नहीं हैं। उनका उत्तर सरल हैं।
8. उन का कहना है कि नैतिक कर्म-ईश्वरेच्छा का परिणाम हैं। ईश्वर ने संसार को जन्म दिया हैं और ईश्वर ही संसार का कर्ता-धर्ता हैं। वही भौतिक, तथा नैतिक-नियमों का रचयिता भी हैं।
9. उनका कहना है कि नैतिक-नियम आदमी की भलाई के लिए है क्योंकि वह ईश्वर की आज्ञा हैं। आदमी को अपनी रचयिता ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करना ही पड़ेगा। और यह 'ईश्वर की आज्ञाओं' पालन ही हैं जो संसार को चलाता हैं।
10. संसार का नैतिक-संस्थान ईश्वरेच्छा का परिणाम हैं-- इसके पक्ष में यही तर्क दिया जाता है।
11. लेकिन यह व्याख्या किसी भी तरह संतोषजनक नहीं हैं। क्योंकि यदि 'ईश्वर' नैतिक-नियमों का जनक हैं और यदि 'ईश्वर' ही नैतिक-नियामें का आरंभ और अवसान है और यदि आदमी ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करने के लिए मजबूर है, जो संसार में इतनी नैतिक-अराजगता वा अनैतिकता क्यों है।
12. इस 'ईश्वरीय-नियम' के पास कौन सी शक्ति हैं? इस 'ईश्वरीय-नियम' का व्यक्ति पर कौन सा अधिकार हैं? ये महत्वपूर्ण प्रश्न हैं। लेकिन जो लोग यह मानते हैं कि संसार का नैतिक-संस्थान ईश्वरेच्छा का परिणाम हैं-- उनके पास इन प्रश्नों का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं।
13. इन कठिनाइयों पर पार पाने के लिए बात कुछ थोड़ी बदल दी गई हैं।
14. अब यह कहा जाने लगा है; निस्संदेह ईश्वर की इच्छा से ही सृष्टि अस्तित्व में आई। यह भी सत्य हैं कि प्रकृति ने ईश्वर की इच्छा और मार्गदर्शन के अनुसार ही अपना कार्य आरंभ किया। यह भी सत्य है कि उसने प्रकृति को एक ही बार वह सब शक्ति प्रदान कर दी जो अब उसकी समस्त क्रिया-शीलता के मूल में हैं।
15. लेकिन इस के बाद 'ईश्वर' ने प्रकृति को स्वतंत्र छोड़ दिया है कि वह शुरू में उसी के बनाये हुए नियमों के अनुसार कार्य करती रहे।
16. इसलिये अब यदि ईश्वरेच्छा या ईश्वर की आज्ञा के अनुसार कार्य नहीं होता, तो अब इसमें ईश्वर का कोई दोष नहीं, सारा दोष प्रकृति का है।
17. लेकिन सिद्धांत में इस तरह थोड़ा परिवर्तन कर देने से भी काम नहीं चलता। इससे केवल इतना ही होता है कि ईश्वर पर कोई जिम्मेदारी नहीं रहती। लेकिन तब प्रश्न पैदा होता है कि ईश्वर ने यह काम प्रकृति को क्यों सौंपा है कि वह उस के बनाये नियमों का पालन कराये? इस प्रकार के अनुपस्थित, इस प्रकार के निकम्मे 'ईश्वर' का क्या प्रयोजन हैं?
18. इस प्रश्न का कि संसार का नैतिक-क्रम कैसे सुरक्षित हैं? जो उत्तर बुद्ध ने दिया है, वह सर्वथा भिन्न हैं।
19. तथागत का उत्तर है: विश्व के नैतिक-क्रम के बनाये रखने वाला कोई 'ईश्वर' नहीं है, वह कर्म-नियम ही है जो विश्व की नैतिक-क्रम को बनाये हुए हैं।
20. विश्व का नैतिक-क्रम चाहे भला हो, चाहे बुरा हो; लेकिन भगवान बुद्ध के उपदेशानुसार जैसा भी है वह आदमी पर निर्भर करता है, और किसी पर नहीं।
21. 'कर्म' का मतलब है मनुष्य द्वारा किया जाने वाला 'कर्म' और 'विपाक' का मतलब है उसका परिणाम। यदि नैतिकक्रम बुरा है तो इसका मतलब है कि आदमी बुरा (अकुशल) कर्म करता है, यदि नैतिक-क्रम अच्छा है तो इसका मतलब है कि आदमी भला (कुशल) कर्म करता हैं।
22. बुद्ध ने केवल कम्म (कर्म) की ही बात नहीं कही। उन्होंने कम्म (कर्म) नियम की भी बात कही हैं- अर्थात कर्म के कानून की।
23. कर्म के नियम से बुद्ध का अभिप्राय था कि यह अनिवार्य है कि कर्म का परिमाण उसी प्रकार उसका पीछा करे जैसे राज दिन का करती हैं। यह एक कानून हैं।
24. कुशल कर्म से होने वाला लाभ भी हर कोई उठा सकता है और अकुशल कर्म से होने वाली हानि से भी कोई नहीं बच सकता।
25. इसलिए भगवान बुद्ध की देशना थी: कुशल--कर्म करो ताकि उस से नैतिकक्रम को सहारा मिलें और उस से मानवता लाभान्वित हो; अकुशल कर्म मत करो ताकि उससे नैतिक-क्रम को हानि पहुंचे और उससे मानवता दुःखी हो।
26. यह हो सकता है कि एक कर्म और उसके विपाक में समय का थोड़ा बहुत या काफी अन्तर भी हो जाय। ऐसा बहुधा होता है।
27. इस दृष्टि से कर्म के कई विभाग हैं जैसे-- दिठ्ठधम्मवेदनीय कर्म (इसी जन्म में फल देने वाला कर्म) उपपज्जवेदनीय कर्म (उत्पन्न होने पर फल देने वाला कर्म), अपरापरियवेदनीय कर्म (अनिश्चत समय पर फल देने वाला कर्म)
28. कर्म कभी-कभी 'आहोसि कर्म' भी हो सकता है, अर्थात कर्म जिसका कुछ 'विपाक' न हो। इस आहोसि-कर्म के अंतर्गत वे सब कर्म आते हैं जो या तो इतनी दूर्बल होते हैं कि उनका कोई 'विपाक' नहीं हो सकता अथवा जो किसी अन्य सबल कर्म द्वारा बाधित हो जाते हैं।
29. इन सब बातों के लिए थोड़ी गुंजाइश भी मान ली जाय तो भी भगवान बुद्ध की यह देशना अपने स्थान पर ठीक ही है कि कर्म का नियम लागू होकर ही रहता हैं।
30. कर्म के सिद्धांत का अनिवार्य तौर पर यह मतलब नहीं है कि करने वाले को ही कर्म का फल भुगतना पड़ता हैं; और इससे अधिक कुछ नहीं। ऐसा समझना गलती हैं। कभी-कभी करने वाले की अपेक्षा दूसरे पर ही कर्म का प्रभाव पड़ता हैं। लेकिन यह सब कर्म का नियम ही है, क्योंकि यह या तो नैतिक-क्रम को संभालना है अथवा उसे गड़बड़ाता हैं।
31.व्यक्ति आते रहते है, व्यक्ति जाते रहते हैं। लेकिन विश्व का नैतिक-क्रम बना रहता हैं और उसके साथ वह कर्म-नियम भी जो इसे बनाये रखता हैं।
32. यही कारण है कि बुद्ध के धम्म में, नैतिकता को वह स्थान प्राप्त है जो अन्य धम्म में 'ईश्वर' को है।
36. 'कर्म के नियम' का संबंध केवल विश्व के नैतिक-क्रम के प्रश्न से हैं। इसे व्यक्ति विशेष के धनी-निर्धन होने वा भाग्यवान-अभाग्यवान होने से कुछ लेना देना नहीं।
37. इसे केवल विश्व के नैतिक-क्रम के बने रहने से सरोकार है।
38. इसी कारण से 'कर्म का नियम' धम्म का एक (महत्वपूर्ण) अंग है।
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(i) 1. तीन तरह की जीवन की पवित्रताएं हैं.. शारीरिक पवित्रता किसे कहते हैं?
2. एक आदमी जीव-हिंसा से विरत होता है, चोरी से विरत होता है, काम मिथ्याचार से विरत होता हैं। इसे शारीरिक पवित्रता कहते हैं।
3. वाणी की पवित्रता किसे कहते हैं?
4. एक आदमी झूठ बोलने से विरत रहता हैं....
5. मानसिक पवित्रता किसे कहते हैं?
6. एक भिक्षु, जब काम-छन्द से ग्रस्त रहता हैं तो वह जानता है कि मुझमें काम-छन्द हैं। यदि वह काम-छन्द से ग्रसा नहीं रहता, तो वह जानता है कि मुझ में काम-छन्द नहीं हैं। वह यह भी नहीं जानता है कि अनुत्पन्न काम-छन्द की किस तरह उत्पत्ति होती हैं? वह यह भी जानता है कि उत्पन्न काम-छन्द का कैसे उच्छेद होता हैं और वह यह भी जानता है कि किस तरह भविष्य में काम-छन्द उत्पन्न नहीं होता।
7. यदि उस में व्यापाद होता है तो वह जानता है कि मुझ में व्यापाद (द्वेष) हैं। वह इसकी उत्पत्ति... विनाश को भी जानता हैं और यह भी जानता हैं कि भविष्य में किस प्रकार इसकी उत्पत्ति नहीं होता।
8. यदि उसमें स्त्यान- मृद्ध (आलस्य तन्द्रा ) की उत्पत्ति हुई रहती है तो वह जानता है कि स्त्यान- मृद्ध उत्पन्न हैं.... उद्धतपन..... यदि उसमें कुछ विचिकित्सा उत्पन्न रहती हैं तो वह जानता है की विचिकित्सा उत्पन्न हैं। वह यह भी जानता है कि किस प्रकार इसका विनाश होता है और किस प्रकार भविष्य में इसकी उत्पत्ति नहीं होती। यही मानसिक पवित्रता कहलाती हैं।
9. जो शरीर, वाणी और मन से पवित्र हैं। निष्पाप, स्वच्छ और पवित्रता से युक्त हैं। उसे लोग 'निष्कलंक' नाम से पुकारते हैं।
4. एक आदमी झूठ बोलने से विरत रहता हैं....
5. मानसिक पवित्रता किसे कहते हैं?
6. एक भिक्षु, जब काम-छन्द से ग्रस्त रहता हैं तो वह जानता है कि मुझमें काम-छन्द हैं। यदि वह काम-छन्द से ग्रसा नहीं रहता, तो वह जानता है कि मुझ में काम-छन्द नहीं हैं। वह यह भी नहीं जानता है कि अनुत्पन्न काम-छन्द की किस तरह उत्पत्ति होती हैं? वह यह भी जानता है कि उत्पन्न काम-छन्द का कैसे उच्छेद होता हैं और वह यह भी जानता है कि किस तरह भविष्य में काम-छन्द उत्पन्न नहीं होता।
7. यदि उस में व्यापाद होता है तो वह जानता है कि मुझ में व्यापाद (द्वेष) हैं। वह इसकी उत्पत्ति... विनाश को भी जानता हैं और यह भी जानता हैं कि भविष्य में किस प्रकार इसकी उत्पत्ति नहीं होता।
8. यदि उसमें स्त्यान- मृद्ध (आलस्य तन्द्रा ) की उत्पत्ति हुई रहती है तो वह जानता है कि स्त्यान- मृद्ध उत्पन्न हैं.... उद्धतपन..... यदि उसमें कुछ विचिकित्सा उत्पन्न रहती हैं तो वह जानता है की विचिकित्सा उत्पन्न हैं। वह यह भी जानता है कि किस प्रकार इसका विनाश होता है और किस प्रकार भविष्य में इसकी उत्पत्ति नहीं होती। यही मानसिक पवित्रता कहलाती हैं।
9. जो शरीर, वाणी और मन से पवित्र हैं। निष्पाप, स्वच्छ और पवित्रता से युक्त हैं। उसे लोग 'निष्कलंक' नाम से पुकारते हैं।
(ii)1. पवित्रता तीन तरह की है... शरीर की पवित्रता... वाणी की पवित्रता तथा मन की पवित्रता।
2. शरीर की पवित्रता किसे कहते हैं?
3. एक आदमी जीव-हिंसा से विरत रहता है, चोरी से विरत रहता है, काम मिथ्याचार से विरत रहता हैं। यह 'शरीर की पवित्रता'।
4.वाणी की पवित्रता किसे कहते हैं?
5. एक आदमी झूठ बोलने से विरत रहता है... व्यर्थ कि बातचीत से विरत रहता है। यह वाणी की पवित्रता कहलाती हैं।
6. मन की पवित्रता किसे कहते हैं?
7. एक आदमी ईष्र्यालु नहीं होता, और सम्यक-दृष्टि रखता हैं। यह मन की पवित्रता हैं। ये तीन तरह की पवित्रताएं है।
(iii) 1. ये पांच तरह की दुर्बलताएं हैं, जिनसे साधना में बाधा पहुंचती है। कौन सी पांच?
5. एक आदमी झूठ बोलने से विरत रहता है... व्यर्थ कि बातचीत से विरत रहता है। यह वाणी की पवित्रता कहलाती हैं।
6. मन की पवित्रता किसे कहते हैं?
7. एक आदमी ईष्र्यालु नहीं होता, और सम्यक-दृष्टि रखता हैं। यह मन की पवित्रता हैं। ये तीन तरह की पवित्रताएं है।
(iii) 1. ये पांच तरह की दुर्बलताएं हैं, जिनसे साधना में बाधा पहुंचती है। कौन सी पांच?
2. जीव-हिंसा, चोरी, काम-मिथ्याचार, झूठ और नशा पैदा करने वाली शराब आदि नशीली चीजों का ग्रहण करना।
3. ये पांच तरह की दुर्बलताएं हैं जिनसे साधना में बाधा पड़ती हैं।
4. जब साधना की ये पांचो बाधाएं दूर हो जाती हैं, तो चार स्मृति-उपस्थानों की उत्पत्ति होनी चाहिये।
5. एक भिक्षु काया के प्रति कायानुपश्ना करता हुआ विहार करता है, प्रयत्नशील, ज्ञानवान, स्मृतिमान और लोक में विद्यमान लोभ तथा दौर्मनस्य को काबू में किये हुए।
6. वह वेदनाओं के प्रति वेदनानुपश्यी हो विहार करता हैं।
7. वह चित्त के प्रति चित्तानुपश्यी हो विहार करता हैं.
8. वह चित्त में उत्पन्न होने वाले विचारों (धम्मों) के प्रति धम्मानुपश्यी हो विहार करता है, प्रयत्नशील, ज्ञानवान, स्मृतिमान और लोक में विद्यमान लोभ तथा दौर्मनस्य को काबू में किये हुए।
9. अब साधना की ये पांच बाधाएं दूर हो जाती हैं तो चार स्मृति- उपस्थानों की उत्पत्ति होनी चाहिए।
(iv)1. ये तीन घात हैं; शील-घात, चित्त-घात और दृष्टि-घात।
2. शीलघात क्या है? एक आदमी प्राणी-हिंसा करता हैं, चोरी करता हैं, काम-भोग संबंधित मिथ्याचार करता है, झूठ बोलता है, चुगली खाता है, कठोर बोलता है तथा व्यर्थ बोलता है। यह शील-घात कहलाता है।
3. चित्त-घाट किसे कहते हैं?
4. एक आदमी लोभी होता है, दौर्मनस्य-युक्त होता है। यह चित्त का घात हैं।
5. दृष्टि-घाट क्या हैं?
6. यहां कोई आदमी इस प्रकार की गलत-धारणा मिथ्या-दृष्टि रखता है कि दान देने में, त्याग करने में, परित्याग करने में कोई पुण्य नहीं; भले-बुरे कर्म का कुछ फल नहीं होता; न यह लोक है और न परलोक है; न माता है, न पिता है और न स्वोत्पन्न प्राणी हैं; लोक में कोई ऐसे श्रवण-ब्राह्मण नहीं है जो शिखर तक जा पहुंचे हों, जिन्होंने पूर्णता लाभ कि हो, जिन्होंने अपनी ही अभिज्ञा से परलोक का साक्षात्कार किया हो और जो उसकी घोषणा कर सकते हो। भिक्षुओं, यह दृष्टिघात हैं।
7. भिक्षुओं, यह शील-घात, चित्त-घात के और दृष्टि-घाट के ही कारण ऐसा होता है कि मरने के अनन्तर प्राणी दुर्गति को प्राप्त होते हैं। ये तीन दृष्टिघात हैं।
8. भिक्षुओं! ये तीन लाभ हैं। कौन से तीन? शील-लाभ, चित्त-लाभ तथा दृष्टि-लाभ।
9. शील-लाभ क्या हैं।
10. एक आदमी प्राणी-हिंसा से विरत रहता है..कठोर बोलने से विरत रहता हैं और व्यर्थ बोलने से विरत रहता हैं। यह शील-लाभ है।
11. चित्त-लाभ क्या है?
12. एक आदमी न लोभी होता है और न दौर्मनस्य-युक्त होता है। यह चित्त-लाभ हैं।
13. और दृष्टि-लाभ क्या हैं?
14. यहां कोई आदमी इस प्रकार की गलत-धारणा, मिथ्या-धारणा नहीं रखता हैं, कि दान देने में, त्याग करने में, परित्याग करने में कोई पुण्य नहीं, भले-बुरे कर्म का कुछ फल नहीं होता, न यह लोक हैं और न परलोक है; न माता है, न पिता है और न स्वोत्पन्न प्राणी हैं, लोक में कोई भी श्रमण-ब्राह्मण नहीं हैं जो शिखर तक जा पहुंचे हों, जिन्होंने पूर्णता लाभ की हो, जिन्होंने अपनी ही अभिज्ञा से परलोक का साक्षात्कार किया हो और जो उसकी घोषणा कर सकते हो। भिक्षुओं यह दृष्टि-लाभ हैं।
15. भिक्षुओं, इन्हीं तीन लाभों के कारण शरीर का नाश होने पर मरने के अनन्तर प्राणी सुगति को प्राप्त होते हैं। भिक्षुओं, यह तीन लाभ है।
2) जीवन में पूर्णता प्राप्त करना धम्म है
1. ये तीन पूर्णताये हैं।
2. शरीर की पूर्णता, वाणी की पूर्णता तथा मन की पूर्णता।
3. मन की पूर्णता कैसे होती हैं?
4. आस्त्रवों अथवा चित्त मलों का पूरा क्षय हो गया होने से, इसी जीवन में संपूर्ण चित्त-विमुक्ति का अनुभव करने से- प्रज्ञा विमुक्ति जो कि आस्त्रवों से विमुक्ति हैं- उसे प्राप्त कर, उसी में विहार करता हैं। यही मन की पूर्णता कहलाती हैं। ये तीन पूर्णताएं हैं।
5. और दूसरी भी पारमिताएं हैं। भगवान बुद्ध ने उन्हें सुभूति को समझाया था।
6. सुभूति- बोधिसत्व की दान-पारमिता क्या हैं?
7. तथागत- बोधिसत्व चित्त की सभी अवस्थाओं का ज्ञान रखकर जान देता है, अपनी भीतरी वा बाह्य, और उन्हें सर्वसाधारण के लिए परित्याग कर 'बोधि' को समर्पित करता हैं। वह दूसरों को भी ऐसा ही करने की प्रेरणा देता हैं। किसी भी वस्तु में उसकी आसक्ति नहीं।
8. सुभूति- एक बोधिसत्व की शील-पारमिता क्या हैं?
9. तथागत- वह स्वयं दस कुशल-प़थों में विचरता है और दूसरों को भी ऐसा ही करने की प्रेरणा करता हैं।
10. सुभूति- बोधिसत्व की शांति पारमिता क्या हैं?
11. तथागत- वह स्वयं क्षमा-शील हो जाता है तथा दूसरों को भी क्षमा शील रहने की प्रेरणा करता हैं।
12. सुभूति- बोधिसत्व की वीय्र्य-पारमिता क्या हैं?
13. तथागत- वह सत्य पांचों पारमिताओं की पूर्ति में संलग्न रहता है, तथा दूसरों को भी ऐसा ही करने की प्रेरणा करता हैं।
14. सुभूति- बोधिसत्व की समाधि की-पारमिता क्या हैं?
15. तथागत- वह अपने कौशल से ध्यानों का लाभ करता है, किंतु तत्सम्बन्धिन रूप-लोकों में उसका जन्म नहीं होता। वह दूसरों को भी ऐसा ही करने की प्रेरणा करता है।
16. सुभूति- बोधिसत्व की प्रज्ञा-पारमिता क्या हैं?
17. तथागत- वह किसी भी धर्म (भौतिक वा अभौतिक वस्तु) में नहीं फसता, वह सभी धर्मों के स्वभाव पर विचार करता हैं। वह दुसरों को भी सभी धर्मों के स्वभाव पर विचार करने की प्रेरणा देता है।
18. इन पारमिताओं का विकास करना धम्म हैं।
3) निर्वाण प्राप्त करना धम्म हैं।
1. भगवान बुद्ध ने कहा हैं; निर्वाण से बढ़कर सुखद कुछ नहीं।
2. भगवान बुद्ध द्वारा उपदिष्ट सभी धम्मो में निर्वाण का प्रमुख स्थान हैं।
3. निर्वाण क्या हैं? भगवान बुद्ध ने निर्वाण का जो अर्थ किया है, वह उस से सर्वथा भिन्न हैं जो उनेक पूर्वजों ने किया है।
4. उनके पूर्वजों की दृष्टि में निर्वाण का मतलब था 'आत्मा' का मोक्ष।
5. निर्वाण के चार स्वरूप थे: 1) लौकिक, (खाओ, पिओ, और मोज उड़ाओ): 2) योगिक, 3) ब्राह्मणी, 4) औपनिषदिक
6. ब्राह्मणी और औपनिषदिक निर्वाण में एक समानता थी। निर्वाण के दोनों स्वरूपों में 'आत्मा' की एक स्वतंत्र सत्ता स्वीकार की गई थी- यह सिद्धांत भगवान बुद्ध को अमान्य ही था। इसलिये भगवान बुद्ध को निर्वाण के ब्राह्मणी और औपनिषदिक स्वरूप का खण्ड़न करने में, उसे अस्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं हुई।
7. निर्वाण की भौतिक कल्पना इतनी अधिक जड़ता लिए हुए थी कि वह कभी भी बुद्ध के गले से उतर ही न सकती थी। इसमें कुछ भी अध्यात्मिक तत्व नहीं था।
8. भगवान बुद्ध को लगता था कि निर्वाण के ऐसे स्वरूप को स्वीकार करना किसी भी मानव की बड़ी से बड़ी हानि करना हैं।
9. इंद्रियों की भूख की संतुष्टि उस भूख को बढ़ाने का ही कारण बनती हैं। इस प्रकार के जीवन में से सुख कभी उत्पन्न नहीं हो सकता। इसके विपरीत इस प्रकार के सुख में से अधिकाधिक दुःख ही उत्पन्न हो सकता है।
10. निर्वाण का यौगिक स्वरूप एक सर्वथा अस्थायी अवस्था थी। इसका 'सुख' नकारात्मक था। इसके माध्यम से संसार से संबंध विच्छेद हो सकता था। यह दुःख से बच निकलना था, किंतु सुख-प्राप्ति नहीं थी। इससे जितने भी कुछ 'सुख' की आशा की जा सकती थी, वह 'सुख' अधिक से अधिक योग की अवधि भर था। यह स्थायी नहीं था। यह अस्थायी था।
11. बुद्ध का निर्वाण का स्वरूप अपने पूर्वजों के स्वरूप से सर्वथा भिन्न हैं।
12. बुद्ध के निर्माण के स्वरूप के मूल में तीन बातें हैं।
13. इसमें से एक तो यह है कि किसी 'आत्मा' का सुख नहीं, बल्कि प्राणी का सुख।
14. दूसरी बात यह है कि संसार में रहते समय प्राणी का सुख। 'आत्मा' की 'मुक्ति' और मरणानन्तर 'आत्मा' की 'मुक्ति' बुद्ध के विचारों से सर्वदा विरुद्ध बातें हैं।
15. तीसरा विचार जो बुद्ध के निर्वाण के स्वरूप का मूलाधार हैं वह है राग द्वेषाग्रि को शांत करना।
16. राग तथा द्वेष प्रज्वलित अग्नि के समान है, यह बात भगवान बुद्ध ने उस प्रवचन में कहीं थी, जो उन्होंने बुद्ध-गया में रहते समय भिक्षुओं को दिया था। भगवान बुद्ध ने कहा-
17. भिक्षुओं, सभी कुछ जल रहा हैं। भिक्षुओं, क्या सभी कुछ जल रहा हैं?
18. भिक्षुओं, चक्षु-इंद्रियां जल रहा है, रुप जल रहा है, चक्षु-विज्ञान जल रहा है, चक्षु-संस्कार जल रहा है, और उस संस्कार से जो भी सुख-वेदना और असुख-अदुख वेदना उत्पन्न होती है, वह वेदना भी जल रही हैं।
19. और ये किस से जल रहे हैं?
20. ये रागाग्नि से जल रहे हैं, ये द्वेषाग्नि से जल रहे हैं, ये मोहाग्नि से जल रहे हैं, ये जाति, जरा, मरण, दु:ख दौर्मनस्य तथा उपायास से जल रहे हैं।
21. भिक्षुओं, श्रोत्र-इंद्रिय जल रहा हैं, शब्द जल रहा हैं, घ्राण-इंद्रिय जल रहा हैं, गन्ध जल रहा हैं; जिव्हा जल रहा हैं, रस जल रहा हैं, काय जल रहा हैं, चित्त के संकल्प-विकल्प जल रहे हैं और चित्त के संस्कारों से जो भी सुख-वेदना, दुख वेदना और असुख-अदुख वेदना उत्पन्न होती है, वह वेदना भी जल रही हैं।
22. और ये किस से जल रहे हैं?
23. मैं कहता हूं, ये रागाग्नि से जल रहे हैं, द्वेषाग्नि से जल रहे हैं, मोहाग्नि से जल रहे हैं: ये जाति, जरा, मरण, दुःख दौर्मनस्य उपायास से जल रहे हैं।
24. भिक्षुओं, इसका ज्ञान होने से जो विज्ञ है और जो श्रेष्ठ है उसके मन में उपेक्षा उत्पन्न होती है, उपेक्षा उत्पन्न होने से रागाग्नि आदि की शांति होती है और रागाग्नि आदि के शांत हो जाने से वह 'मुक्त' हो जाता है; और मुक्त हो जाने से वह जानता है कि मैं 'मुक्त' हो गया हूं।
25. निर्वाण सुखद कैसे हो सकता हैं? यह एक दूसरा प्रश्न है जिसका उत्तर उपेक्षित हैं।
26. सामान्य तौर पर यह कहा-समझा जाता है कि अभाव आदमी को दुःखी बनाता हैं। लेकिन हमेशा यही बात ठीक नहीं होती। आदमी बाहुल्य के बीच में रहता हुआ भी दुःखी रहता है।
27. दुःख लोभ का परिणाम है और लोभ दोनों को होता है, जिनके पास नहीं है उन्हें भी और जिनके पास है, उन्हें भी।
28. भगवान बुद्ध ने भिक्षुओं को दिये एक प्रवचन में यह बात भली प्रकार सुस्पष्ट कर दी हैं--
29. भिक्षुओं, लोभ से लुब्ध, द्वेष से दुष्ट और मोह से मूढ़ चित्त से आदमी अपने दुःखी से दुःखी रहता है, आदमी दूसरों के दु:खों से दुःखी रहता हैं, आदमी मानसिक वेदना और पीड़ा अनुभव करता हैं।
30. किंतु यदि लोभ, द्वेष तथा मोह का मूलोच्छेद हो जाय तो आदमी न अपने दु:खों से दुखी रहेगा, न दूसरों के दु:खों से दु:खी रहेगा और न मानसिक वेदना और पीड़ा अनुभव करेगा।
31. इस प्रकार भिक्षुओं, निर्वाण इसी जीवन में प्राप्त हैं, भविष्य-जीवन में नहीं, अच्छा लगने वाला हैं, आकर्षक है और बुद्धिमान श्रावक इसे हस्तगत कर सकता हैं।
32. जो चीज आदमी को जला डालती है और जो उसे दुःखी बनाती है, यहां उसे स्पष्ट कर दिया गया हैं। आदमी के राग-द्वेष को जलती हुई अग्नि के समान कहकर भगवान बुद्ध ने आदमी के दुःख की सर्वाधिक जोरदार व्याख्या की है।
33. राग-द्वेष की अधीनता ही आदमी को दुःखी बनाता हैं। राग-द्वेष को 'संयोजन' अथवा बंधन कहा गया हैं। जो आदमी को निर्वाण तक पहुंच नहीं पहुंचने देते। ज्यों ही आदमी राग-द्वेष की झोंक से मुक्त हो जाता हैं, उसके लिए निर्वाण-पत्थ खुल जाता है, वह दुःख का अन्त कर सकता है।
34. भगवान बुद्ध ने इन संयोजनों के तीन विभागों में विभक्त किया है-
35. पहला विभाग वह है जिसका संबंध हर प्रकार की तृष्णा से है, जैसे कामुकता और लोभ।
36. दूसरा वर्ग यह है जिसका संबंध सभी प्रकार की वितृष्णा से ही-- जैसे घृणा, क्रोध और द्वेष (दोष)
37. तीसरा वर्ग वह है जिसका संबंध सभी तरह की अविद्या से है-- जड़ता, मूर्खता और मुढता (मोह)
38. पहली (राग) अग्नि और दूसरी (द्वेष) अग्नि का संबंध आदमी की उन भावनाओं से है और उस दृष्टि-कोण से है जो उसका दूसरों के प्रति है, जबकि तीसरी (मोह) अग्नि का संबंध उन सभी विचारों से है जो सत्य से भिन्न हैं।
39. भगवान बुद्ध के निर्वाण के सिद्धांत के बारे में बहुत सी गलत-फहमियां हैं।
40. शब्द की इस व्युत्पत्ति की दृष्टि से 'निर्वाण' शब्द का शब्दार्थ है बुझ जाना।
41. शब्द की इस व्युत्पत्ति को लेकर आलोचकों ने 'निर्वाण' को दो कौड़ी का ही नहीं रहने दिया है, उसे एक सर्वथा बेहूदा सी चीज बना दिया है।
42. उनका कहना है कि निर्वाण का मतलब है सभी मानवी-प्रवृत्तियों का बुझ जाना अर्थात मृत्यु।
43. इस प्रकार उन्होंने निर्वाण के सिद्धांत का मजाक उड़ाने की कोशिश की है।
44. जो कोई भी इस 'अग्नि-स्कन्धोपम' सूक्त की भाषा का विचार करेगा, उसे यह स्पष्ट हो जाएगा कि निर्वाण का यह अर्थ कदापि नहीं हैं।
45. इस प्रवचन में यह नहीं कहा गया है कि जीवन चल रहा है और बुझ जाना मृत्यु हैं। इसमें यह कहा गया है कि राग अग्नि जल रही है दिवेश रागिनी जल रही है राग-अग्नि जल रही है, द्वेषाग्नि जल रही है तथा मोहाग्नि जल रही हैं।
46. इस अग्नि-स्कन्धोपम सूक्त में यह कही नहीं कहा गया कि आदमी की हर प्रकार की प्रवृत्तियों का मूलोच्छेद कर देना चाहिए। इसमें आग में घी डालना ही मना किया गया है।
47. दूसरी बात यह है कि आलोचक 'निर्वाण' और 'परिनिर्वाण' का भेद करना भी भूल गये हैं।
48. उदान के अनुसार जब शरीर बिखर जाता है, जब तमाम सज्ञायें रुक जाती है, तब तमाम विदनाओं का नाश हो जाता है, जब सभी प्रकार की प्रक्रिया बंद हो जाती है और तब चेतना एकदम जाती रहती है तभी परिनिर्वाण होता है। इस प्रकार परिनिर्वाण का मतलब है पूरी तरह बुझ जाना।
49. निर्वाण का कभी यह अर्थ नहीं हो सकता। निर्वाण का मतलब है अपनी प्रवृत्तियों पर इतना काबू रखना कि आदमी धम्म के मार्ग पर चल सके। इससे अधिक और इसका दूसरा कुछ आशय ही नहीं।
50. राध को समझते हुए स्वयं भगवान बुद्ध ने यह स्पष्ट किया था कि निर्दोष जीवन का ही दूसरा नाम निर्वाण हैं।
51. एक बार राध स्थविर भगवान बुद्ध के पास आये। आकर भगवान बुद्ध को अभिवादन कर एक और बैठ गये। इस प्रकार बैठकर राध स्थविर ने भगवान बुद्ध से कहा:- भन्ते! निर्वाण किस लिए हैं?
52. तथागत ने उत्तर दिया-- निर्वाण का मतलब है रागाग्नि, द्वेषाग्नि तथा मोहाग्नि का बुझ जाना।
53. लेकिन भन्ते! निर्वाण का उद्देश्य क्या हैं?
54. राध! निर्दोष जीवन का मूल निर्वाण में हैं। निर्वाण ही उद्देश्य हैं। निर्वाण ही मकसद हैं।
55. निर्वाण का मतलब सभी (प्रवृत्तियों का) बुझ जाना नहीं हैं, यह बात सारिपुत्र ने भी अपने इस प्रवचन में स्पष्ट की है:-
56. एक बार भगवान बुद्ध श्रावस्ती में, अनाथपिण्ड़क के जेतवनाराम में बिहार कर रहे थे। उसी समय सारिपुत्र भी वहीं ठहरे हुए थे।
57. भगवान बुद्ध ने भिक्षुओं को संबोधित करके कहा:- भिक्षु! धम्म के दयाद बनो। भौतिक-वस्तुओं के दायाद न बनो। मेरी तुम पर अनुकम्पा है। इसलिए मैं तुम्हें धम्म का दायाद बनाता हूं।
58. भगवान बुद्ध ने यह कहा है और तब वह उठकर (गन्ध) कुटी में चले गये।
59. सारिपुत्र पीछे रह गये। तभी भिक्षुओं ने सारिपुत्र से प्रार्थना की कि वह बतायें कि निर्वाण क्या हैं?
60. तब सारिपुत्र ने भिक्षुओं को उत्तर देते हुए कहा-- भिक्षुओं! लोभ बुरा है, द्वेष बुरा हैं।
61. इस लोभ और इस द्वेष से मुक्ति पाने का साधन मध्यम-मार्ग हैं, जो आंख देने वाला है, जो ज्ञान देने वाला है, जो हमें शांति, अभिज्ञा, बोधि तथा निर्वाण की ओर ले जाता है।
62. यह मध्यम-मार्ग कौन सा हैं? यह मध्यम-मार्ग आर्य अष्टांगिक-मार्ग के अतिरिक्त कुछ नहीं, यही सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक कर्मान्त, सम्यक आजीविका, सम्यक प्रयत्न (व्यायाम) सम्यक स्मृति तथा सम्यक समाधी, भिक्षुओं! यही मध्यम-मार्ग हैं।
63. हां! भिक्षुओं! क्रोध बुरी चीज हैं, द्वेष बुरी चीज है, ईर्ष्या बुरी चीज है, मात्सर्य बुरी चीज है, कंजूसपन बुरी चीज है, लालच बुरी चीज है, ढ़ोंग बुरी चीज है, ठगी बुरी चीज है, उद्धतपन बुरी चीज है, मोह बुरी चीज है तथा प्रमाद बुरी चीज हैं।
64. मोह तथा प्रमाद के नाश के लिए मध्यम-मार्ग है, जो आंख देने वाला है, जो ज्ञान देने वाला है, जो हमें शांति, अभिज्ञा, बोधि तथा; निर्वाण की ओर ले जाता हैं।
65. निर्वाण आर्य अष्टांगिक-मार्ग के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं।
66. इस प्रकार सारिपुत्र ने कहा। प्रसन्न-चित्त भिक्षु सारिपुत्र का प्रवचन सुन प्रमुदित हुए।
67. निर्वाण के मूल में जो विचार है वह यही है कि यह निष्कलङ्कता का पथ हैं। किसी को भी निर्वाण से और कुछ समझना ही नहीं चाहिये।
68. सम्पूर्ण उच्छेवाद एक अन्त है और परिनिर्वाण दूसरा अन्त है। निर्वाण मध्यम-मार्ग हैं।
69. यदि निर्वाण को इस प्रकार ठीक तरह से समझ लिया जाय, तो निर्माण के संबंध में सारी गड़बड़ी दूर हो जाती है।
10. निर्वाण का यौगिक स्वरूप एक सर्वथा अस्थायी अवस्था थी। इसका 'सुख' नकारात्मक था। इसके माध्यम से संसार से संबंध विच्छेद हो सकता था। यह दुःख से बच निकलना था, किंतु सुख-प्राप्ति नहीं थी। इससे जितने भी कुछ 'सुख' की आशा की जा सकती थी, वह 'सुख' अधिक से अधिक योग की अवधि भर था। यह स्थायी नहीं था। यह अस्थायी था।
11. बुद्ध का निर्वाण का स्वरूप अपने पूर्वजों के स्वरूप से सर्वथा भिन्न हैं।
12. बुद्ध के निर्माण के स्वरूप के मूल में तीन बातें हैं।
13. इसमें से एक तो यह है कि किसी 'आत्मा' का सुख नहीं, बल्कि प्राणी का सुख।
14. दूसरी बात यह है कि संसार में रहते समय प्राणी का सुख। 'आत्मा' की 'मुक्ति' और मरणानन्तर 'आत्मा' की 'मुक्ति' बुद्ध के विचारों से सर्वदा विरुद्ध बातें हैं।
15. तीसरा विचार जो बुद्ध के निर्वाण के स्वरूप का मूलाधार हैं वह है राग द्वेषाग्रि को शांत करना।
16. राग तथा द्वेष प्रज्वलित अग्नि के समान है, यह बात भगवान बुद्ध ने उस प्रवचन में कहीं थी, जो उन्होंने बुद्ध-गया में रहते समय भिक्षुओं को दिया था। भगवान बुद्ध ने कहा-
17. भिक्षुओं, सभी कुछ जल रहा हैं। भिक्षुओं, क्या सभी कुछ जल रहा हैं?
18. भिक्षुओं, चक्षु-इंद्रियां जल रहा है, रुप जल रहा है, चक्षु-विज्ञान जल रहा है, चक्षु-संस्कार जल रहा है, और उस संस्कार से जो भी सुख-वेदना और असुख-अदुख वेदना उत्पन्न होती है, वह वेदना भी जल रही हैं।
19. और ये किस से जल रहे हैं?
20. ये रागाग्नि से जल रहे हैं, ये द्वेषाग्नि से जल रहे हैं, ये मोहाग्नि से जल रहे हैं, ये जाति, जरा, मरण, दु:ख दौर्मनस्य तथा उपायास से जल रहे हैं।
21. भिक्षुओं, श्रोत्र-इंद्रिय जल रहा हैं, शब्द जल रहा हैं, घ्राण-इंद्रिय जल रहा हैं, गन्ध जल रहा हैं; जिव्हा जल रहा हैं, रस जल रहा हैं, काय जल रहा हैं, चित्त के संकल्प-विकल्प जल रहे हैं और चित्त के संस्कारों से जो भी सुख-वेदना, दुख वेदना और असुख-अदुख वेदना उत्पन्न होती है, वह वेदना भी जल रही हैं।
22. और ये किस से जल रहे हैं?
23. मैं कहता हूं, ये रागाग्नि से जल रहे हैं, द्वेषाग्नि से जल रहे हैं, मोहाग्नि से जल रहे हैं: ये जाति, जरा, मरण, दुःख दौर्मनस्य उपायास से जल रहे हैं।
24. भिक्षुओं, इसका ज्ञान होने से जो विज्ञ है और जो श्रेष्ठ है उसके मन में उपेक्षा उत्पन्न होती है, उपेक्षा उत्पन्न होने से रागाग्नि आदि की शांति होती है और रागाग्नि आदि के शांत हो जाने से वह 'मुक्त' हो जाता है; और मुक्त हो जाने से वह जानता है कि मैं 'मुक्त' हो गया हूं।
25. निर्वाण सुखद कैसे हो सकता हैं? यह एक दूसरा प्रश्न है जिसका उत्तर उपेक्षित हैं।
26. सामान्य तौर पर यह कहा-समझा जाता है कि अभाव आदमी को दुःखी बनाता हैं। लेकिन हमेशा यही बात ठीक नहीं होती। आदमी बाहुल्य के बीच में रहता हुआ भी दुःखी रहता है।
27. दुःख लोभ का परिणाम है और लोभ दोनों को होता है, जिनके पास नहीं है उन्हें भी और जिनके पास है, उन्हें भी।
28. भगवान बुद्ध ने भिक्षुओं को दिये एक प्रवचन में यह बात भली प्रकार सुस्पष्ट कर दी हैं--
29. भिक्षुओं, लोभ से लुब्ध, द्वेष से दुष्ट और मोह से मूढ़ चित्त से आदमी अपने दुःखी से दुःखी रहता है, आदमी दूसरों के दु:खों से दुःखी रहता हैं, आदमी मानसिक वेदना और पीड़ा अनुभव करता हैं।
30. किंतु यदि लोभ, द्वेष तथा मोह का मूलोच्छेद हो जाय तो आदमी न अपने दु:खों से दुखी रहेगा, न दूसरों के दु:खों से दु:खी रहेगा और न मानसिक वेदना और पीड़ा अनुभव करेगा।
31. इस प्रकार भिक्षुओं, निर्वाण इसी जीवन में प्राप्त हैं, भविष्य-जीवन में नहीं, अच्छा लगने वाला हैं, आकर्षक है और बुद्धिमान श्रावक इसे हस्तगत कर सकता हैं।
32. जो चीज आदमी को जला डालती है और जो उसे दुःखी बनाती है, यहां उसे स्पष्ट कर दिया गया हैं। आदमी के राग-द्वेष को जलती हुई अग्नि के समान कहकर भगवान बुद्ध ने आदमी के दुःख की सर्वाधिक जोरदार व्याख्या की है।
33. राग-द्वेष की अधीनता ही आदमी को दुःखी बनाता हैं। राग-द्वेष को 'संयोजन' अथवा बंधन कहा गया हैं। जो आदमी को निर्वाण तक पहुंच नहीं पहुंचने देते। ज्यों ही आदमी राग-द्वेष की झोंक से मुक्त हो जाता हैं, उसके लिए निर्वाण-पत्थ खुल जाता है, वह दुःख का अन्त कर सकता है।
34. भगवान बुद्ध ने इन संयोजनों के तीन विभागों में विभक्त किया है-
35. पहला विभाग वह है जिसका संबंध हर प्रकार की तृष्णा से है, जैसे कामुकता और लोभ।
36. दूसरा वर्ग यह है जिसका संबंध सभी प्रकार की वितृष्णा से ही-- जैसे घृणा, क्रोध और द्वेष (दोष)
37. तीसरा वर्ग वह है जिसका संबंध सभी तरह की अविद्या से है-- जड़ता, मूर्खता और मुढता (मोह)
38. पहली (राग) अग्नि और दूसरी (द्वेष) अग्नि का संबंध आदमी की उन भावनाओं से है और उस दृष्टि-कोण से है जो उसका दूसरों के प्रति है, जबकि तीसरी (मोह) अग्नि का संबंध उन सभी विचारों से है जो सत्य से भिन्न हैं।
39. भगवान बुद्ध के निर्वाण के सिद्धांत के बारे में बहुत सी गलत-फहमियां हैं।
40. शब्द की इस व्युत्पत्ति की दृष्टि से 'निर्वाण' शब्द का शब्दार्थ है बुझ जाना।
41. शब्द की इस व्युत्पत्ति को लेकर आलोचकों ने 'निर्वाण' को दो कौड़ी का ही नहीं रहने दिया है, उसे एक सर्वथा बेहूदा सी चीज बना दिया है।
42. उनका कहना है कि निर्वाण का मतलब है सभी मानवी-प्रवृत्तियों का बुझ जाना अर्थात मृत्यु।
43. इस प्रकार उन्होंने निर्वाण के सिद्धांत का मजाक उड़ाने की कोशिश की है।
44. जो कोई भी इस 'अग्नि-स्कन्धोपम' सूक्त की भाषा का विचार करेगा, उसे यह स्पष्ट हो जाएगा कि निर्वाण का यह अर्थ कदापि नहीं हैं।
45. इस प्रवचन में यह नहीं कहा गया है कि जीवन चल रहा है और बुझ जाना मृत्यु हैं। इसमें यह कहा गया है कि राग अग्नि जल रही है दिवेश रागिनी जल रही है राग-अग्नि जल रही है, द्वेषाग्नि जल रही है तथा मोहाग्नि जल रही हैं।
46. इस अग्नि-स्कन्धोपम सूक्त में यह कही नहीं कहा गया कि आदमी की हर प्रकार की प्रवृत्तियों का मूलोच्छेद कर देना चाहिए। इसमें आग में घी डालना ही मना किया गया है।
47. दूसरी बात यह है कि आलोचक 'निर्वाण' और 'परिनिर्वाण' का भेद करना भी भूल गये हैं।
48. उदान के अनुसार जब शरीर बिखर जाता है, जब तमाम सज्ञायें रुक जाती है, तब तमाम विदनाओं का नाश हो जाता है, जब सभी प्रकार की प्रक्रिया बंद हो जाती है और तब चेतना एकदम जाती रहती है तभी परिनिर्वाण होता है। इस प्रकार परिनिर्वाण का मतलब है पूरी तरह बुझ जाना।
49. निर्वाण का कभी यह अर्थ नहीं हो सकता। निर्वाण का मतलब है अपनी प्रवृत्तियों पर इतना काबू रखना कि आदमी धम्म के मार्ग पर चल सके। इससे अधिक और इसका दूसरा कुछ आशय ही नहीं।
50. राध को समझते हुए स्वयं भगवान बुद्ध ने यह स्पष्ट किया था कि निर्दोष जीवन का ही दूसरा नाम निर्वाण हैं।
51. एक बार राध स्थविर भगवान बुद्ध के पास आये। आकर भगवान बुद्ध को अभिवादन कर एक और बैठ गये। इस प्रकार बैठकर राध स्थविर ने भगवान बुद्ध से कहा:- भन्ते! निर्वाण किस लिए हैं?
52. तथागत ने उत्तर दिया-- निर्वाण का मतलब है रागाग्नि, द्वेषाग्नि तथा मोहाग्नि का बुझ जाना।
53. लेकिन भन्ते! निर्वाण का उद्देश्य क्या हैं?
54. राध! निर्दोष जीवन का मूल निर्वाण में हैं। निर्वाण ही उद्देश्य हैं। निर्वाण ही मकसद हैं।
55. निर्वाण का मतलब सभी (प्रवृत्तियों का) बुझ जाना नहीं हैं, यह बात सारिपुत्र ने भी अपने इस प्रवचन में स्पष्ट की है:-
56. एक बार भगवान बुद्ध श्रावस्ती में, अनाथपिण्ड़क के जेतवनाराम में बिहार कर रहे थे। उसी समय सारिपुत्र भी वहीं ठहरे हुए थे।
57. भगवान बुद्ध ने भिक्षुओं को संबोधित करके कहा:- भिक्षु! धम्म के दयाद बनो। भौतिक-वस्तुओं के दायाद न बनो। मेरी तुम पर अनुकम्पा है। इसलिए मैं तुम्हें धम्म का दायाद बनाता हूं।
58. भगवान बुद्ध ने यह कहा है और तब वह उठकर (गन्ध) कुटी में चले गये।
59. सारिपुत्र पीछे रह गये। तभी भिक्षुओं ने सारिपुत्र से प्रार्थना की कि वह बतायें कि निर्वाण क्या हैं?
60. तब सारिपुत्र ने भिक्षुओं को उत्तर देते हुए कहा-- भिक्षुओं! लोभ बुरा है, द्वेष बुरा हैं।
61. इस लोभ और इस द्वेष से मुक्ति पाने का साधन मध्यम-मार्ग हैं, जो आंख देने वाला है, जो ज्ञान देने वाला है, जो हमें शांति, अभिज्ञा, बोधि तथा निर्वाण की ओर ले जाता है।
62. यह मध्यम-मार्ग कौन सा हैं? यह मध्यम-मार्ग आर्य अष्टांगिक-मार्ग के अतिरिक्त कुछ नहीं, यही सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक कर्मान्त, सम्यक आजीविका, सम्यक प्रयत्न (व्यायाम) सम्यक स्मृति तथा सम्यक समाधी, भिक्षुओं! यही मध्यम-मार्ग हैं।
63. हां! भिक्षुओं! क्रोध बुरी चीज हैं, द्वेष बुरी चीज है, ईर्ष्या बुरी चीज है, मात्सर्य बुरी चीज है, कंजूसपन बुरी चीज है, लालच बुरी चीज है, ढ़ोंग बुरी चीज है, ठगी बुरी चीज है, उद्धतपन बुरी चीज है, मोह बुरी चीज है तथा प्रमाद बुरी चीज हैं।
64. मोह तथा प्रमाद के नाश के लिए मध्यम-मार्ग है, जो आंख देने वाला है, जो ज्ञान देने वाला है, जो हमें शांति, अभिज्ञा, बोधि तथा; निर्वाण की ओर ले जाता हैं।
65. निर्वाण आर्य अष्टांगिक-मार्ग के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं।
66. इस प्रकार सारिपुत्र ने कहा। प्रसन्न-चित्त भिक्षु सारिपुत्र का प्रवचन सुन प्रमुदित हुए।
67. निर्वाण के मूल में जो विचार है वह यही है कि यह निष्कलङ्कता का पथ हैं। किसी को भी निर्वाण से और कुछ समझना ही नहीं चाहिये।
68. सम्पूर्ण उच्छेवाद एक अन्त है और परिनिर्वाण दूसरा अन्त है। निर्वाण मध्यम-मार्ग हैं।
69. यदि निर्वाण को इस प्रकार ठीक तरह से समझ लिया जाय, तो निर्माण के संबंध में सारी गड़बड़ी दूर हो जाती है।
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4) तृष्णा का त्याग धम्म हैं
1. धम्मपद में भगवान बुद्ध ने कहा है; आरोग्य से बढ़कर लाभ नहीं, संतोष से बढ़कर धन नहीं।
2. यहां संतोष का मतलब बेचारगी वा परिस्थिति के सामने सिर झुका देना नहीं है।
3. ऐसा समझना भगवान बुद्ध की दूसरी शिक्षाओं के सर्वथा प्रतिकूल पड़ेगा।
4. भगवान बुद्ध ने यह कहीं नहीं कहा कि भाग्यवान हैं वे जो गरीब हैं।
5. भगवान बुद्ध ने यह कहीं न कहां कि जो पीड़ित हैं उन्हें अपनी परिस्थिति बदलने का प्रयास नहीं करना चाहिये।
6. दूसरी और उन्होंने 'ऐश्वर्य' का स्वागत किया है। अपनी परिस्थिति की ओर से उपेक्षावान होकर पड़े-पड़े कष्ट सहते रहने के उपदेश के स्थान पर उन्होंने वीय्र्य, उत्साहपूर्वक परिस्थिति को बदलने का प्रयास करने का उपदेश दिया हैं।
7. जब भगवान बुद्ध ने यह कहा कि 'संतोष सबसे बड़ा धन हैं' तो उनके कहने का अभिप्राय यही था कि आदमी को लोभ वशीभूत नहीं होना चाहिये, जिसकी कहीं कोई सीमा नहीं।
8. जैसा कि भिक्षु राष्ट्रपाल ने कहा है; मै धनियों को देखता हूं जो मूर्खता वश अधिक से अधिक इकट्ठा ही करते चले जाते है, उसमें से कभी भी किसी को कुछ नहीं देते, उनकी तृष्णा रुपी प्यास बुझती ही नहीं; राजाओं को देखता हूं कि जिनका राज्य समुद्र तक पहुंच गया है, किंतु अब समुद्रपार साम्राज्य के लिए दुःखी हैं, अभी भी तृष्णार्त हैं, राज्य-प्रजा सभी संसार से गुजर जाते हैं, उनका अभाव बना ही रहता है; वे शरीर त्याग देते है, किंतु इस पृथ्वी पर उनकी काम-भोग की इच्छा की कभी तृप्ति ही नहीं होती।
9. महा-निदान-सुत्त में भगवान बुद्ध ने आनन्द को 'लोभ' को वह अपने वश में रखने के लिए कहा हैं। तथागत का वचन हैं:-
10. इस प्रकार आनन्द! लाभ की इच्छा में से तृष्णा पैदा होती है, जब लाभ की इच्छा मिल्कियत की इच्छा में बदल जाती है, जब मिल्कियत की इच्छा अपनी मिल्कियत से बुरी तरह चिपटे रहने की इच्छा बन जाती है, तो यह 'लोभ' कहलाती हैं।
11. लोभ या संग्रह करने की असंयत-कामना पर नजर रखने की जरूरत हैं।
12. इस तृष्णा या लोभ को वश में रखने की क्यों जरूरत हैं? 'क्योंकि इसी से' भगवान बुद्ध ने आनन्द से कहा 'बहुत सी बुराइयां पैदा होती हैं, मुक्कामुक्की भी हो जाती हैं, कलह भी होते हैं, एक दूसरे की निन्दा तथा झूठ बोलना भी होता हैं।'
13. इस में कोई सन्देह नहीं कि वर्ग-संघर्ष का यह सही-सही विश्लेषण है।
14. इसी लिये भगवान बुद्ध ने 'तृष्णा' और लोभ को अपने वश में रखने के लिए कहा हैं।
1. धम्मपद में भगवान बुद्ध ने कहा है; आरोग्य से बढ़कर लाभ नहीं, संतोष से बढ़कर धन नहीं।
2. यहां संतोष का मतलब बेचारगी वा परिस्थिति के सामने सिर झुका देना नहीं है।
3. ऐसा समझना भगवान बुद्ध की दूसरी शिक्षाओं के सर्वथा प्रतिकूल पड़ेगा।
4. भगवान बुद्ध ने यह कहीं नहीं कहा कि भाग्यवान हैं वे जो गरीब हैं।
5. भगवान बुद्ध ने यह कहीं न कहां कि जो पीड़ित हैं उन्हें अपनी परिस्थिति बदलने का प्रयास नहीं करना चाहिये।
6. दूसरी और उन्होंने 'ऐश्वर्य' का स्वागत किया है। अपनी परिस्थिति की ओर से उपेक्षावान होकर पड़े-पड़े कष्ट सहते रहने के उपदेश के स्थान पर उन्होंने वीय्र्य, उत्साहपूर्वक परिस्थिति को बदलने का प्रयास करने का उपदेश दिया हैं।
7. जब भगवान बुद्ध ने यह कहा कि 'संतोष सबसे बड़ा धन हैं' तो उनके कहने का अभिप्राय यही था कि आदमी को लोभ वशीभूत नहीं होना चाहिये, जिसकी कहीं कोई सीमा नहीं।
8. जैसा कि भिक्षु राष्ट्रपाल ने कहा है; मै धनियों को देखता हूं जो मूर्खता वश अधिक से अधिक इकट्ठा ही करते चले जाते है, उसमें से कभी भी किसी को कुछ नहीं देते, उनकी तृष्णा रुपी प्यास बुझती ही नहीं; राजाओं को देखता हूं कि जिनका राज्य समुद्र तक पहुंच गया है, किंतु अब समुद्रपार साम्राज्य के लिए दुःखी हैं, अभी भी तृष्णार्त हैं, राज्य-प्रजा सभी संसार से गुजर जाते हैं, उनका अभाव बना ही रहता है; वे शरीर त्याग देते है, किंतु इस पृथ्वी पर उनकी काम-भोग की इच्छा की कभी तृप्ति ही नहीं होती।
9. महा-निदान-सुत्त में भगवान बुद्ध ने आनन्द को 'लोभ' को वह अपने वश में रखने के लिए कहा हैं। तथागत का वचन हैं:-
10. इस प्रकार आनन्द! लाभ की इच्छा में से तृष्णा पैदा होती है, जब लाभ की इच्छा मिल्कियत की इच्छा में बदल जाती है, जब मिल्कियत की इच्छा अपनी मिल्कियत से बुरी तरह चिपटे रहने की इच्छा बन जाती है, तो यह 'लोभ' कहलाती हैं।
11. लोभ या संग्रह करने की असंयत-कामना पर नजर रखने की जरूरत हैं।
12. इस तृष्णा या लोभ को वश में रखने की क्यों जरूरत हैं? 'क्योंकि इसी से' भगवान बुद्ध ने आनन्द से कहा 'बहुत सी बुराइयां पैदा होती हैं, मुक्कामुक्की भी हो जाती हैं, कलह भी होते हैं, एक दूसरे की निन्दा तथा झूठ बोलना भी होता हैं।'
13. इस में कोई सन्देह नहीं कि वर्ग-संघर्ष का यह सही-सही विश्लेषण है।
14. इसी लिये भगवान बुद्ध ने 'तृष्णा' और लोभ को अपने वश में रखने के लिए कहा हैं।
5) यह मानना कि सभी संस्कार अनित्य हैं धम्म हैं
1. अनित्यता के सिद्धांत के तीन पहलू हैं।
2. अनेक तत्वों के मेल में बनी हुई चीजें अनित्य हैं। 3. व्यक्तिगत रूप से प्राणी अनित्य हैं।
4. प्रतीत्य-समुत्पन्न वस्तुओं का 'आत्म-तत्व' अनित्य हैं।
5. अनेक तत्वों के मेल से बनी हुई चीजों का अनित्यता की बात महान बौद्ध दार्शनिक असंग ने अच्छी तरह समझाई हैं।
6. सभी चीजें, असंग का कहना हैं, हेतुओं तथा प्रत्ययों से उत्पन्न हैं। किसी का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं हैं। जब हेतु-प्रत्ययों का उच्छेद हो जाता है वस्तुओं का अस्तित्व नहीं रहता।
7. प्राणी का शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु नामक चार महाभूतों का परिमाण हैं। जब इन चारों महाभूतों का पृथक्करण हो जाता हैं, प्राणी नहीं रहता।
8. 'अनेक तत्वों के मेल से बनी हुई चीजें अनित्य हैं' कहने का अभिप्राय यही हैं।
9. जीवित प्राणी की अनित्यता की सर्वश्रेष्ठ व्याख्या यही है कि वह है नहीं, वही हो रहा है।
10. इस अर्थ में भूत काल का प्राणी अपना जीवन व्यतीत कर चुका, न वह वर्तमान में कर रहा हैं और न भविष्य में करेगा। भविष्यता काल का प्राणी रहेगा, लेकिन न रहा हैं और न रहता है। वर्तमान काल का प्राणी रहता है, लेकिन न रहा है, और न रहेगा। 11. संक्षेप यही है कि मानव निरंतर परिवर्तन-शील है, निरंतर संवर्धनशील हैं। वह अपने जीवन के दो भिन्न क्षणों में भी एक ही नहीं हैं।
12. इस सिद्धांत का तीसरा पहलू एक सामान्य आदमी के लिए समझ सकना कुछ कठिन हैं।
13. यह समझ लेना कि आदमी किसी न किसी दिन अवश्य मर जायेगा, बड़ा आसान हैं।
14. किंतु यह समझ सकना कि किस प्रकार एक प्राणी जीते जी परिवर्तित होता रहता है, उतना ही आसान नहीं।
15. यह कैसे संभव हैं? भगवान बुद्ध का उत्तर था- यह इसी लिये संभव है कि हर चीज अनित्य हैं।
16. आगे चलकर इसी 'अनित्यता' के सिद्धांत ने शून्यवाद का रूप धारण कर लिया है।
17. बौद्ध 'शून्यता' का मतलब सोलह आने निषेध नहीं हैं। इसका मतलब इतना ही है कि संसार में जो कुछ है वह प्रतिक्षण बदल रहा हैं।
18. बहुत कम लोग इस बात को समझ पाते हैं कि 'शुन्यता' के ही कारण सभी कुछ सम्भव है, इसके बिना संसार में कुछ भी सम्भव नहीं रहेगा। सभी दूसरी बातें चीजों के अनित्यता के स्वभाव पर ही निर्भर करती हैं।
19. यदि चीजें परिवर्तन-शील न हों बल्कि स्थायी और अपरिवर्तनशील हों, तब एक रूप में किसी दूसरे रूप में जीवन का सारा विकास ही रुक जायेगा, किसी में कुछ भी परिवर्तन न हो सकेगा, किसी की कुछ भी उन्नति न हो सकेगी।
20. यदि आदमी मर जाते या उन में परिवर्तन आ जाता है और फिर वे सब उसी अवस्था में अपरिवर्तित स्थिति में रहते, तो क्या हालत होती? मानव-जाति की प्रगति सर्वथा रुक जाती।
21. यदि 'शून्य' का मतलब 'अभाव' माना जाये तो कई कठिनाइयां उत्पन्न हो जाती हैं।
22. 'शून्य' उस बिंदु के समान है, जो कि एक पदार्थ है किंतु जिसकी कोई लम्बाई-चौड़ाई नहीं।
23. भगवान बुद्ध का यह उपदेश था कि सभी चीजें अनित्य हैं।
24. इस सिद्धांत में से हमें क्या शिक्षा मिलती हैं? यह अधिक महत्व का प्रश्न हैं।
25. इस सिद्धांत में हमें जो शिक्षा मिलती हैं, वह सरल हैं। किसी वस्तु के प्रति आसक्त न होओ।
26. यह अनासक्ति संपत्ति के प्रति अनासक्ति, सम्बन्धियों, मित्रों तथा परिचितों के प्रति अनासक्ति का ही अभ्यास करने के लिए यह कहा गया हैं कि सभी चीजें अनित्य हैं।
5. 'कर्म' को मानव जीवन के नैतिक संस्थान का आधार मानना धम्म हैं
1. भौतिक संसार में एक प्रकार का नियम दिखाई देता है। निम्नलिखित बातें इसकी साक्षी है।
2. आकाश के नक्षत्रों के चलन में एक प्रकार का नियम है।
3. ऋतुओं के नियमानुसार आवागमन में भी एक नियम हैं।
4. बीजों से वृक्ष उत्पन्न होते हैं, वृक्षों में फल लगते है और फलों से फिर बीच प्राप्त होते है-- इस में भी एक प्रकार का नियम हैं।
5. बौद्ध परिभाषा में यह सब 'बीज-नियम' तथा 'ऋतु-नियम' आदि कहलाते हैं।
6. इसी प्रकार क्या समाज में भी कोई नैतिक-क्रम हैं? यदि है तो यह कैसे उत्पन्न हुआ है? इस का संरक्षण कैसे होता है?
7. जो 'ईश्वर' में विश्वास रखते हैं, उन्हें इस प्रश्न का उत्तर देने में कोई कठिनाई नहीं हैं। उनका उत्तर सरल हैं।
8. उन का कहना है कि नैतिक कर्म-ईश्वरेच्छा का परिणाम हैं। ईश्वर ने संसार को जन्म दिया हैं और ईश्वर ही संसार का कर्ता-धर्ता हैं। वही भौतिक, तथा नैतिक-नियमों का रचयिता भी हैं।
9. उनका कहना है कि नैतिक-नियम आदमी की भलाई के लिए है क्योंकि वह ईश्वर की आज्ञा हैं। आदमी को अपनी रचयिता ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करना ही पड़ेगा। और यह 'ईश्वर की आज्ञाओं' पालन ही हैं जो संसार को चलाता हैं।
10. संसार का नैतिक-संस्थान ईश्वरेच्छा का परिणाम हैं-- इसके पक्ष में यही तर्क दिया जाता है।
11. लेकिन यह व्याख्या किसी भी तरह संतोषजनक नहीं हैं। क्योंकि यदि 'ईश्वर' नैतिक-नियमों का जनक हैं और यदि 'ईश्वर' ही नैतिक-नियामें का आरंभ और अवसान है और यदि आदमी ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करने के लिए मजबूर है, जो संसार में इतनी नैतिक-अराजगता वा अनैतिकता क्यों है।
12. इस 'ईश्वरीय-नियम' के पास कौन सी शक्ति हैं? इस 'ईश्वरीय-नियम' का व्यक्ति पर कौन सा अधिकार हैं? ये महत्वपूर्ण प्रश्न हैं। लेकिन जो लोग यह मानते हैं कि संसार का नैतिक-संस्थान ईश्वरेच्छा का परिणाम हैं-- उनके पास इन प्रश्नों का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं।
13. इन कठिनाइयों पर पार पाने के लिए बात कुछ थोड़ी बदल दी गई हैं।
14. अब यह कहा जाने लगा है; निस्संदेह ईश्वर की इच्छा से ही सृष्टि अस्तित्व में आई। यह भी सत्य हैं कि प्रकृति ने ईश्वर की इच्छा और मार्गदर्शन के अनुसार ही अपना कार्य आरंभ किया। यह भी सत्य है कि उसने प्रकृति को एक ही बार वह सब शक्ति प्रदान कर दी जो अब उसकी समस्त क्रिया-शीलता के मूल में हैं।
15. लेकिन इस के बाद 'ईश्वर' ने प्रकृति को स्वतंत्र छोड़ दिया है कि वह शुरू में उसी के बनाये हुए नियमों के अनुसार कार्य करती रहे।
16. इसलिये अब यदि ईश्वरेच्छा या ईश्वर की आज्ञा के अनुसार कार्य नहीं होता, तो अब इसमें ईश्वर का कोई दोष नहीं, सारा दोष प्रकृति का है।
17. लेकिन सिद्धांत में इस तरह थोड़ा परिवर्तन कर देने से भी काम नहीं चलता। इससे केवल इतना ही होता है कि ईश्वर पर कोई जिम्मेदारी नहीं रहती। लेकिन तब प्रश्न पैदा होता है कि ईश्वर ने यह काम प्रकृति को क्यों सौंपा है कि वह उस के बनाये नियमों का पालन कराये? इस प्रकार के अनुपस्थित, इस प्रकार के निकम्मे 'ईश्वर' का क्या प्रयोजन हैं?
18. इस प्रश्न का कि संसार का नैतिक-क्रम कैसे सुरक्षित हैं? जो उत्तर बुद्ध ने दिया है, वह सर्वथा भिन्न हैं।
19. तथागत का उत्तर है: विश्व के नैतिक-क्रम के बनाये रखने वाला कोई 'ईश्वर' नहीं है, वह कर्म-नियम ही है जो विश्व की नैतिक-क्रम को बनाये हुए हैं।
20. विश्व का नैतिक-क्रम चाहे भला हो, चाहे बुरा हो; लेकिन भगवान बुद्ध के उपदेशानुसार जैसा भी है वह आदमी पर निर्भर करता है, और किसी पर नहीं।
21. 'कर्म' का मतलब है मनुष्य द्वारा किया जाने वाला 'कर्म' और 'विपाक' का मतलब है उसका परिणाम। यदि नैतिकक्रम बुरा है तो इसका मतलब है कि आदमी बुरा (अकुशल) कर्म करता है, यदि नैतिक-क्रम अच्छा है तो इसका मतलब है कि आदमी भला (कुशल) कर्म करता हैं।
22. बुद्ध ने केवल कम्म (कर्म) की ही बात नहीं कही। उन्होंने कम्म (कर्म) नियम की भी बात कही हैं- अर्थात कर्म के कानून की।
23. कर्म के नियम से बुद्ध का अभिप्राय था कि यह अनिवार्य है कि कर्म का परिमाण उसी प्रकार उसका पीछा करे जैसे राज दिन का करती हैं। यह एक कानून हैं।
24. कुशल कर्म से होने वाला लाभ भी हर कोई उठा सकता है और अकुशल कर्म से होने वाली हानि से भी कोई नहीं बच सकता।
25. इसलिए भगवान बुद्ध की देशना थी: कुशल--कर्म करो ताकि उस से नैतिकक्रम को सहारा मिलें और उस से मानवता लाभान्वित हो; अकुशल कर्म मत करो ताकि उससे नैतिक-क्रम को हानि पहुंचे और उससे मानवता दुःखी हो।
26. यह हो सकता है कि एक कर्म और उसके विपाक में समय का थोड़ा बहुत या काफी अन्तर भी हो जाय। ऐसा बहुधा होता है।
27. इस दृष्टि से कर्म के कई विभाग हैं जैसे-- दिठ्ठधम्मवेदनीय कर्म (इसी जन्म में फल देने वाला कर्म) उपपज्जवेदनीय कर्म (उत्पन्न होने पर फल देने वाला कर्म), अपरापरियवेदनीय कर्म (अनिश्चत समय पर फल देने वाला कर्म)
28. कर्म कभी-कभी 'आहोसि कर्म' भी हो सकता है, अर्थात कर्म जिसका कुछ 'विपाक' न हो। इस आहोसि-कर्म के अंतर्गत वे सब कर्म आते हैं जो या तो इतनी दूर्बल होते हैं कि उनका कोई 'विपाक' नहीं हो सकता अथवा जो किसी अन्य सबल कर्म द्वारा बाधित हो जाते हैं।
29. इन सब बातों के लिए थोड़ी गुंजाइश भी मान ली जाय तो भी भगवान बुद्ध की यह देशना अपने स्थान पर ठीक ही है कि कर्म का नियम लागू होकर ही रहता हैं।
30. कर्म के सिद्धांत का अनिवार्य तौर पर यह मतलब नहीं है कि करने वाले को ही कर्म का फल भुगतना पड़ता हैं; और इससे अधिक कुछ नहीं। ऐसा समझना गलती हैं। कभी-कभी करने वाले की अपेक्षा दूसरे पर ही कर्म का प्रभाव पड़ता हैं। लेकिन यह सब कर्म का नियम ही है, क्योंकि यह या तो नैतिक-क्रम को संभालना है अथवा उसे गड़बड़ाता हैं।
31.व्यक्ति आते रहते है, व्यक्ति जाते रहते हैं। लेकिन विश्व का नैतिक-क्रम बना रहता हैं और उसके साथ वह कर्म-नियम भी जो इसे बनाये रखता हैं।
32. यही कारण है कि बुद्ध के धम्म में, नैतिकता को वह स्थान प्राप्त है जो अन्य धम्म में 'ईश्वर' को है।
33. इसलिये इस प्रश्न का कि 'विश्व' का नैतिक-क्रम कैसे बना रहता हैं? बुद्ध ने जो उत्तर दिया है वह इतना सरल है और इतना पक्का हैं।
34. इतना होने पर भी इसका सच्चा अर्थ बहुधा स्पष्ट नहीं होता। प्रायः ही नहीं, बल्कि लगभग हमेशा, या तो यह अच्छी तरह से समझा नहीं जाता, या गलत तौर पर बयान किया जाता है अथवा इसकी गलत व्याख्या की जाती है। बहुत लोग इस बात को समझते प्रतीत नहीं होते कि 'कर्म के नियम' का सिद्धांत इस प्रश्न का उत्तर है कि विश्व का नैतिक-क्रम कैसे बना रहता हैं?
35. लेकिन बुद्ध के 'कर्म के नियम' के सिद्धांत का यही प्रयोजन हैं।
35. लेकिन बुद्ध के 'कर्म के नियम' के सिद्धांत का यही प्रयोजन हैं।
36. 'कर्म के नियम' का संबंध केवल विश्व के नैतिक-क्रम के प्रश्न से हैं। इसे व्यक्ति विशेष के धनी-निर्धन होने वा भाग्यवान-अभाग्यवान होने से कुछ लेना देना नहीं।
37. इसे केवल विश्व के नैतिक-क्रम के बने रहने से सरोकार है।
38. इसी कारण से 'कर्म का नियम' धम्म का एक (महत्वपूर्ण) अंग है।
दोस्तों धम्म क्या है What is Dhamma के इस लेखन कि जानकारी कैसी लगी। आप भी अपने लोगों के साथ शेयर करे सकते हैं। सबका मंगल हों!!