Gautam Buddha Story in Hindi 'धम्म' में भगवान बुद्ध का अपना स्थान
1)भगवान बुद्ध ने अपने धम्म में, अपने लिये कुछ भी विशेष स्थान नहीं रखा।
1. ईसा ने ईसाइयत का पैगम्बर होने का दावा किया।
2. इससे आगे उसने यह भी दावा किया कि वह खुदा का बेटा है।
3. ईसा ने यह भी कहा कि जब तक कोई आदमी यह न स्वीकार करें कि ईसा खुदा का बेटा हैं, तब उसकी मुक्ति हो ही नहीं सकती।
4. इस प्रकार ईसा ने किसी भी ईसाई की मुक्ति के लिए अपने आप को ईश्वर का पैगम्बर और बेटा मानने की अनिवार्य शर्त रख कर, ईसाइयत में अपने लिए एक खास स्थान सुरक्षित कर लिया।
5. इस्लाम के पैगम्बर मुहम्मद साहब का दावा था कि वह खुदा द्वारा भेजे गए इस्लाम के पैगाम-बर थे।
6. उनका यह भी दावा था कि कोई आदमी निजात (-मुक्ति) लाभ नहीं कर सकता जब तक वह ये दो बातें और न स्वीकार करें।
7. जो इस्लाम में रहकर मुक्ति-लाभ करना चाहता हो, उसे यह स्वीकार करना होगा कि मुहम्मद साहब खुदा का पैगम्बर हैं।
8. जो इस्लाम में रहकर मुक्ति-लाभ करना चाहता हो, उसे आगे यह भी स्वीकार करना होगा कि मोहम्मद साहब खुदा के आखिरी पैगम्बर थे।
9. इस प्रकार इस्लाम में मुक्ति केवल उन्हीं के लिए संभव है जो ऊपर की दो बातें स्वीकार करें।
10. इस तरह मुहम्मद साहब ने किसी भी मुसलमान की मुक्ति अपने को खुदा का पैगम्बर मानने की अनिवार्य शर्त पर निर्भर करके अपने लिए इस्लाम में एक खास स्थान सुरक्षित कर लिया।
11. भगवान बुद्ध ने कभी कोई ऐसी शर्त नहीं रखी।
12. उन्होंने शुद्धोदन और महामाया का प्राकृतिक-पुत्र होने के अतिरिक्त कभी कोई दूसरा दावा नहीं किया।
13. उन्होंने ईसा मसीह या मुहम्मद साहब की तरह की शर्तें लगाकर अपने धम्म-शासन में अपने लिए कोई खास स्थान सुरक्षित नहीं रखा।
14. यही कारण है कि इतना वाङ्मय रहते हुए भी हमें बुद्ध के व्यक्तिगय जीवन के बारे में इतनी कम जानकारी हैं।
15. जैसे ज्ञात ही है कि भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के अनन्तर राजगृह में प्रथम संगीति (कॉन्फ्रेंस) हुई थी।
16. उस संगीति में महाकाश्यप अध्यक्ष थे। आनन्द, उपाली और अन्य दूसरे लोग, जो कपिलवस्तु के ही थे, जो जहां-जहां वे गये प्रायः हर जगह उनके साथ थे, घूम और मृत्यु-पर्यन्त साथ रहे, वहां उपस्थित थे।
17. लेकिन अध्यक्ष महाकश्यप ने क्या किया?
18. उन्होंने आनन्द को 'धम्म' का संगायन करने के लिये कहां और तब 'संगीति-कारकों' से पूछा कि क्या यह ठीक हैं? उन्होंने 'हां' में उत्तर दिया। महाकाश्यप ने तब प्रश्न समाप्त कर दिया।
19. तब महाकाश्यप ने उपाली को 'विनय' का संगायन करने के लिए कहा और 'संगीति-कारकों' से पूछा कि क्या यह ठीक हैं? उन्होंने 'हां' में उत्तर दिया। महाकाश्यप ने तब प्रश्न समाप्त कर दिया।
20. तब महाकाश्यप को चाहिए था कि वह किसी तीसरे को जो संगीति में उपस्थित था, आज्ञा देते कि वह भगवान बुद्ध के जीवन की मुख्य-मुख्य घटनाओं का संगायन करें।
21. लेकिन महाकाश्यप ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने सोचा कि 'धम्म' और 'विनय'- यही दो विषय ऐसे है जिनसे संघ का सरोकार है।
22. यदि महाकाश्यप ने भगवान बुद्ध के जीवन की घटनाओं का एक ब्योरा तैयार करा लिया होता, तो आज हमारे पास भगवान बुद्ध का एक पूरा जीवन चरित्र होता।
23. भगवान बुद्ध के जीवन की मुख्य-मुख्य घटनाओं का एक ब्योरा तैयार करा लेने के बाद महाकाश्यप को क्यों नहीं सूझी?
24. इसका कारण उपेक्षा नहीं हो सकती। इसका केवल एक ही उत्तर हैं कि भगवान बुद्ध ने अपने ये 'धम्म-शासन' में अपने लिए कोई विशेष स्थान सुरक्षित नहीं रखा था।
25. भगवान बुद्ध अपने धम्म में सर्वथा पृथक थे। उनका अपना स्थान था धम्म का अपना।
26. भगवान बुद्ध ने किसी को अपना उत्तराधिकारी बनाने से इन्कर किया, यह भी इस बात का उदाहरण या प्रणाम हैं कि वह अपने 'धम्म-शासन' में अपने लिए कोई स्थान सुरक्षित रखना नहीं चाहते थे।
27. दो-तीन बार भगवान बुद्ध के अनुयायियों ने उनसे प्रार्थना की कि वे किसी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दें।
28. हर बार भगवान बुद्ध ने अस्वीकार किया।
29. उनका उत्तर था, धम्म ही धम्म का उत्तराधिकारी हैं।
30. धम्म को अपने ही तेज से जीवित रहना चाहिये; किसी मानवीय अधिकार के बल से नहीं।
31. यदि धम्म को मानवीय अधिकार पर निर्भर रहने की आवश्यकता है, तो वह धम्म नहीं।
32. यदि धम्म की प्रतिष्ठा के लिए हर बार इसके संस्थापक का नाम रटते रटने की आवश्यकता है, तो वह धम्म नहीं।
33. अपने धम्म को लेकर स्वयं अपने बारे में भगवान बुद्ध का यही दृष्टिकोण था।
1. ईसा ने ईसाइयत का पैगम्बर होने का दावा किया।
2. इससे आगे उसने यह भी दावा किया कि वह खुदा का बेटा है।
3. ईसा ने यह भी कहा कि जब तक कोई आदमी यह न स्वीकार करें कि ईसा खुदा का बेटा हैं, तब उसकी मुक्ति हो ही नहीं सकती।
4. इस प्रकार ईसा ने किसी भी ईसाई की मुक्ति के लिए अपने आप को ईश्वर का पैगम्बर और बेटा मानने की अनिवार्य शर्त रख कर, ईसाइयत में अपने लिए एक खास स्थान सुरक्षित कर लिया।
5. इस्लाम के पैगम्बर मुहम्मद साहब का दावा था कि वह खुदा द्वारा भेजे गए इस्लाम के पैगाम-बर थे।
6. उनका यह भी दावा था कि कोई आदमी निजात (-मुक्ति) लाभ नहीं कर सकता जब तक वह ये दो बातें और न स्वीकार करें।
7. जो इस्लाम में रहकर मुक्ति-लाभ करना चाहता हो, उसे यह स्वीकार करना होगा कि मुहम्मद साहब खुदा का पैगम्बर हैं।
8. जो इस्लाम में रहकर मुक्ति-लाभ करना चाहता हो, उसे आगे यह भी स्वीकार करना होगा कि मोहम्मद साहब खुदा के आखिरी पैगम्बर थे।
9. इस प्रकार इस्लाम में मुक्ति केवल उन्हीं के लिए संभव है जो ऊपर की दो बातें स्वीकार करें।
10. इस तरह मुहम्मद साहब ने किसी भी मुसलमान की मुक्ति अपने को खुदा का पैगम्बर मानने की अनिवार्य शर्त पर निर्भर करके अपने लिए इस्लाम में एक खास स्थान सुरक्षित कर लिया।
11. भगवान बुद्ध ने कभी कोई ऐसी शर्त नहीं रखी।
12. उन्होंने शुद्धोदन और महामाया का प्राकृतिक-पुत्र होने के अतिरिक्त कभी कोई दूसरा दावा नहीं किया।
13. उन्होंने ईसा मसीह या मुहम्मद साहब की तरह की शर्तें लगाकर अपने धम्म-शासन में अपने लिए कोई खास स्थान सुरक्षित नहीं रखा।
14. यही कारण है कि इतना वाङ्मय रहते हुए भी हमें बुद्ध के व्यक्तिगय जीवन के बारे में इतनी कम जानकारी हैं।
15. जैसे ज्ञात ही है कि भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के अनन्तर राजगृह में प्रथम संगीति (कॉन्फ्रेंस) हुई थी।
16. उस संगीति में महाकाश्यप अध्यक्ष थे। आनन्द, उपाली और अन्य दूसरे लोग, जो कपिलवस्तु के ही थे, जो जहां-जहां वे गये प्रायः हर जगह उनके साथ थे, घूम और मृत्यु-पर्यन्त साथ रहे, वहां उपस्थित थे।
17. लेकिन अध्यक्ष महाकश्यप ने क्या किया?
18. उन्होंने आनन्द को 'धम्म' का संगायन करने के लिये कहां और तब 'संगीति-कारकों' से पूछा कि क्या यह ठीक हैं? उन्होंने 'हां' में उत्तर दिया। महाकाश्यप ने तब प्रश्न समाप्त कर दिया।
19. तब महाकाश्यप ने उपाली को 'विनय' का संगायन करने के लिए कहा और 'संगीति-कारकों' से पूछा कि क्या यह ठीक हैं? उन्होंने 'हां' में उत्तर दिया। महाकाश्यप ने तब प्रश्न समाप्त कर दिया।
20. तब महाकाश्यप को चाहिए था कि वह किसी तीसरे को जो संगीति में उपस्थित था, आज्ञा देते कि वह भगवान बुद्ध के जीवन की मुख्य-मुख्य घटनाओं का संगायन करें।
21. लेकिन महाकाश्यप ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने सोचा कि 'धम्म' और 'विनय'- यही दो विषय ऐसे है जिनसे संघ का सरोकार है।
22. यदि महाकाश्यप ने भगवान बुद्ध के जीवन की घटनाओं का एक ब्योरा तैयार करा लिया होता, तो आज हमारे पास भगवान बुद्ध का एक पूरा जीवन चरित्र होता।
23. भगवान बुद्ध के जीवन की मुख्य-मुख्य घटनाओं का एक ब्योरा तैयार करा लेने के बाद महाकाश्यप को क्यों नहीं सूझी?
24. इसका कारण उपेक्षा नहीं हो सकती। इसका केवल एक ही उत्तर हैं कि भगवान बुद्ध ने अपने ये 'धम्म-शासन' में अपने लिए कोई विशेष स्थान सुरक्षित नहीं रखा था।
25. भगवान बुद्ध अपने धम्म में सर्वथा पृथक थे। उनका अपना स्थान था धम्म का अपना।
26. भगवान बुद्ध ने किसी को अपना उत्तराधिकारी बनाने से इन्कर किया, यह भी इस बात का उदाहरण या प्रणाम हैं कि वह अपने 'धम्म-शासन' में अपने लिए कोई स्थान सुरक्षित रखना नहीं चाहते थे।
27. दो-तीन बार भगवान बुद्ध के अनुयायियों ने उनसे प्रार्थना की कि वे किसी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दें।
28. हर बार भगवान बुद्ध ने अस्वीकार किया।
29. उनका उत्तर था, धम्म ही धम्म का उत्तराधिकारी हैं।
30. धम्म को अपने ही तेज से जीवित रहना चाहिये; किसी मानवीय अधिकार के बल से नहीं।
31. यदि धम्म को मानवीय अधिकार पर निर्भर रहने की आवश्यकता है, तो वह धम्म नहीं।
32. यदि धम्म की प्रतिष्ठा के लिए हर बार इसके संस्थापक का नाम रटते रटने की आवश्यकता है, तो वह धम्म नहीं।
33. अपने धम्म को लेकर स्वयं अपने बारे में भगवान बुद्ध का यही दृष्टिकोण था।
2) भगवान बुद्ध ने कभी किसी को मुक्त करने का आश्वासन नहीं दिया। उन्होंने कहा कि वे मार्ग-दाता हैं, मोक्ष-दाता नहीं। Gautam Buddha Dhamma Life Teachings
1. बहुत से धर्म 'इल्हामी धर्म' माने जाते है। भगवान बुद्ध का धम्म 'इल्हामी धर्म' नहीं।
2. कोई धर्म 'इल्हामी धर्म' इसलिए कहलाता है कि वह भगवान का 'संदेश' वा 'पैगाम' समझा जाता हैं ताकि, वे अपने रचयिता की पूजा करें कि वह उनकी आत्माओं को मुक्त करें।
3. अक्सर यह पैगाम किसी चुने हुए व्यक्ति के द्वारा प्राप्त माना जाता हैं, जो पैगाम-बर कहलाता हैं, जिसे यह पैगाम प्राप्त होता है और जो फिर उस पैगाम को लोगों तक पहुंचाता है।
4. यह पैगम्बर का काम है कि जो उसके धर्म पर ईमान लाने वाले हो, उनके लिये मोक्ष लाभ निश्चित कर दें।
5. जो धर्म पर ईमान लाते हैं, उनकी मुक्ति का मतलब है, उनकी रूहों की निजात, ताकि वे दोजखं में न जा सकें, लेकिन उसके लिए शर्त हैं कि उन्हें खुदा की हुकुमों की तालीम करनी होगी और यह स्वीकार करना होगा कि पैगम्बर खुदा का पैगाम-बर हैं।
6. बुद्ध ने कभी भी अपने को 'खुदा का पैगाम-बर' होने का दावा नहीं किया। यदि कभी किसी ने ऐसा समझा तो भगवान बुद्ध ने उसका खण्ड़न किया।
7. इससे भी बड़ी महत्वपूर्ण बात यह है कि भगवान बुद्ध का धम्म का एक अविष्कार (Discovery) है, एक खोज हैं। इसलिए ऐसे किसी धर्म से जो 'इल्हामी' में कहा जाता है, इसका भेद पूरी-पूरी तरह स्पष्ट हो जाना चाहिये।
8. भगवान बुद्ध का धम्म अर्थो में एक अविष्कारक है या एक खोज है क्योंकि यह पृथ्वी पर जो मानवीय-जीवन है उसके गंभीर अध्ययन का परिणाम हैं और जिन स्वभाविक-प्रवृत्तियो (instincts) को लेकर आदमी के जन्म ग्रहण किया हैं उन्हें पूरी-पूरी तरह समझ लेने का परिणाम है, और साथ ही उन प्रवृत्तियों को भी जिन्हें आदमी के इतिहास ने जन्म दिया हैं और जो अब उसके विनाश का कारण बनी हुई हैं।
9. सभी पैगम्बरों ने 'मुक्ति-दाता' होने का दावा किया है। भगवान बुद्ध ही एक ऐसे महापुरुष हुए हैं जिन्होंने इस प्रकार का कोई दावा नहीं किया। उन्होंने 'मोक्ष-दाता' को 'मार्ग-दाता' से सर्वथा पृथक रखा है- एक तो 'मोक्ष' देने वाला, दूसरा केवल उसका 'मार्ग' बता देने वाला।
10. भगवान बुद्ध केवल मार्ग-दाता थे। अपनी मुक्ति के लिए हर किसी को स्वयं अपने आप ही प्रयास करना होता है।
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11. उन्होंने इस एक सूत्त में ब्राह्मण मोग्गल्लान को यह बात सर्वथा स्पष्ट कर दी थी।
12. एक बार भगवान बुद्ध श्रावस्ती में मिगारमाता के प्रासाद पूर्वाराम में ठहरे हुए थे।
13. उस समय ब्राह्मण मोग्गल्लान गणक तथागत के पास आया और कुशलक्षेम पूछ कर एक ओर बैठा गया। इस प्रकार बैठकर ब्राह्मण मोग्गल्लान गणक ने तथागत से कहां:-
14. श्रमण गौतम! जिस प्रकार किसी भी आदमी को इस प्रासाद का परिचय क्रमश: प्राप्त होता है, एक क्रम के अनुसार एक के बाद दूसरा, यहां तक कि आदमी ऊपर की अंतिम सिढ़ी तक जा पहुंचता है। इसी प्रकार हम ब्राह्मणों का शिक्षा-क्रम भी क्रमिक है, क्रमशः है: अर्थात हमारे वेदों के अध्ययन में।
11. उन्होंने इस एक सूत्त में ब्राह्मण मोग्गल्लान को यह बात सर्वथा स्पष्ट कर दी थी।
12. एक बार भगवान बुद्ध श्रावस्ती में मिगारमाता के प्रासाद पूर्वाराम में ठहरे हुए थे।
13. उस समय ब्राह्मण मोग्गल्लान गणक तथागत के पास आया और कुशलक्षेम पूछ कर एक ओर बैठा गया। इस प्रकार बैठकर ब्राह्मण मोग्गल्लान गणक ने तथागत से कहां:-
14. श्रमण गौतम! जिस प्रकार किसी भी आदमी को इस प्रासाद का परिचय क्रमश: प्राप्त होता है, एक क्रम के अनुसार एक के बाद दूसरा, यहां तक कि आदमी ऊपर की अंतिम सिढ़ी तक जा पहुंचता है। इसी प्रकार हम ब्राह्मणों का शिक्षा-क्रम भी क्रमिक है, क्रमशः है: अर्थात हमारे वेदों के अध्ययन में।
15. श्रमण गौतम! जैसे धनुर्विद्या में उसी प्रकार हम ब्राह्मणों में शिक्षाक्रम क्रमिक हैं, क्रमशः हैं, जैसे गणना में।
16. जब हम विद्यार्थी को लेते हैं तो हम उसे गणना सिखाते हैं, एक एक, दो दूनी (चार), तीन तिया (नौ), चार चौके (सोलह) और इसी प्रकार सौ तक। अब श्रवण गौतम! क्या आप के लिए भी यह संभव है कि आप ऐसे भी शिक्षण-कम्र का परिचय दे सकें जो क्रमिक हो, जो क्रमश: हो और जिसके अनुसार आपके अनुयायी शिक्षा ग्रहण करते हों?
17. ब्राह्मण! यह ऐसा ही है। ब्राह्मण! एक चतुर अश्व-शिक्षक को ही लो। वह एक श्रेष्ठ बछड़े को हाथ में लेता हैं। सबसे पहले वह उसके मुंह में लगाम लगाकर उसे साधता हैं। फिर धीरे-धीरे दूसरी बातें सिखाता हैं।
18. इसी प्रकार हे ब्राह्मण! जो शिक्षाकामी हैं, ऐसे आदमी को तथागत लेते हैं और सर्वप्रथम यही शिक्षा देते हैं कि शीलवान रहो... प्रातिमोक्ष के नियमों का पालन करों।
19. सदाचरण में दृढ़ हो जाओ, छोटे-छोटे दोषों को भी बड़ा समझों, शिक्षा ग्रहण करो और विनय में पक्के हो जाओ।
20. जब वह इस प्रकार शिक्षा में दृढ़ हो जाता हैं तो तथागत उसे अगला पाठ देते हैं, श्रमण! आओ आंख से किसी रूप को देखकर उसके सामान्य स्वरूप वा उसके ब्योरे से आकर्षित न होओं।
21. उस प्रवृत्ति पर काबू रखो, जो तृष्णा का परिणाम है, जो असंयम होकर चाक्षु-इंद्रिय से रूप देखने से उत्पन्न होती हैं... ये कु-प्रवृतियां, ये चित्त की अकुशल अवस्थाये आदमी पर बाढ़ की तरह काबू पा लेती हैं। चक्षु-इंद्रिय को संयत रखो। चक्षु-इंद्रिय को काबू में रखो।
22. और इसी प्रकार दूसरी इंद्रियों के विषय में भी सावधान रहो। जब तुम कान से कोई शब्द सुना, या नाक से कोई गंध सूंघो, या जिव्हा से कोई चीज रखों, या शरीर से किसी का स्पर्श करो, और जब तुम्हारे मन में तत्संबंधी संज्ञा पैदा हो तो उस वस्तु के सामान्य स्वरूप अथवा उसके ब्योरे से आकर्षित मत हो।
23. ज्यों ही वह उसका पूर्ण अभ्यास कर लेता हैं, तो तथागत उसे अगला पाठ देते हैं: श्रवण! आओ। भोजन के विषय में मात्रज्ञ हो, न खेल के लिये, न मद के लिये, न शरीर को सजाने के लिये, बल्कि जब तक इस शरीर की स्थिति हैं तब तक इसे स्थिर बनाये रखने, विहिंसा से बचे रहने के लिए तथा श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करने के लिए ही भोजन ग्रहण करो। भोजन ग्रहण करते समय मन में यह विचार रहना चाहिए कि मैं पहले की वेदना का नाश कर रहा हूं, नई वेदना नहीं उत्पन्न होने दे रहा हूं... मेरी जीवन-यात्रा निर्दोष होगी और सुख-पूर्ण होगी।
24. ब्राह्मण! जब वह भोजन के विषय में संयत हो जाता है, तब तथागत उसे अगला पाठ पढ़ाते हैं: श्रवण! आओ! जागरूकता- (सति) का अभ्यास करो। दिन के समय, चलते हुए वा बैठे-बैठे अपने चित्त को चित्त-मलों से परिशुद्ध करो। रात के पहले पहर में भी चलते-फिरते रहकर वा एक जगह बैठकर ऐसा ही करो। रात के दूसरे पहर में सिंह-शैय्या से दाहिनी करवट लेट जाकर एक पैर को दूसरे पांव पर रखे हुए, जागरूकता तथा सम्यक जानकारी से युक्त, अप्रमादरत। रात के तीसरे पहर में जागकर चलते हुए वा बैठे-बैठे अपने चित्त को चित्त-मलों से परिशुद्धों करो।
25. और ब्राह्मण! जब वह जागरूकता का अभ्यासी हो जाता हैं, तो तथागत उसे अगला पाठ देते हैं: श्रवण! आओ जागरूकता और स्मृति (सम्यक जानकारी) से युक्त हो। आगे चलते हुए या पीछे हटते हुए अपने आप को संयत रखो। आगे देखते हुए, पीछे देखते हुए, चुकते हुए, शिथिल होते हुए, चीवर धारण करते हुए, पात्र-चीवर ले जाते हुए, खाते हुए, चबाते हुए, चखते हुए, शौच जाते हुए, चलते हुए, खड़े रहते हुए, बैठते हुए, लेटते हुए, सोते हुए, जागते हुए, बोलते हुए या मौन रहते हुए, स्मृति सम्यक जानकारी से युक्त हो।
26. ब्राह्मण! जब वह आत्म-संयमी हो जाता है तब तथागत उसे अगली शिक्षा देते हैं: श्रमण! आओ किसी एकान्त-स्थान को खोजो- चाहे बन हो, चाहे किसी वृक्ष की छाया हो, चाहे कोई पर्वत हो, चाहे किसी पर्वत की गुफा हो, चाहे श्मशान भूमि हो, चाहे वन-गुल्म हो, चाहे खुला आकाश हो और चाहे कोई पुवाल का ढ़र हो। और वह वैसा करता हैं। तब वह भोजनान्तर, पालथी लगाकर बैठता है और शरीर को सीधा रखकर चारों-ध्यानों का अभ्यास करता है।
27. ब्राह्मण! जो अभी शैक्ष हैं, जो अभी अशैक्ष नहीं हुए हैं, जो अभी अशैक्ष होने के लिए प्रयत्न-शील हैं, उनके लिए मेरा यही शिक्षा-क्रम हैं।
28. लेकिन जो अर्हत-पद प्राप्त हैं, जो अपने आस्त्रवों का क्षय कर चुके हैं, जो अपने जीवन का उद्देश्य पूरा कर चुके हैं, जो कृतकृत्य हैं, जो अपने सिर का भार उतार चुके हैं, जो मुक्ति-प्राप्त हैं, जिन्होंने भव-बंधनों का मूलोच्छेद कर दिया है और जो प्रज्ञा विमुक्त हैं। ऐसों के लिए उपरोक्त श्रेष्ठ जीवन सुख-विहार भर के लिए हैं और जागरूकता युक्त जीवन आत्मसंयम मात्र के लिए।
29. जब यह कहा जा चुका, तब ब्राह्मण मोग्गल्लान गणक ने तथागत से कहा-
30. श्रवण गौतम! मुझे यह तो बताये कि क्या आपके सभी शिष्य निर्वाण प्राप्त करते हैं, कुछ नहीं भी कर पाते हैं।
31. ब्राह्मण! इस क्रम से शिक्षित मेरे कुछ श्रावक निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं, कुछ नहीं भी कर पाते हैं।
32. श्रवण गौतम! इसका क्या कारण हैं? श्रवण गौतम! इसका क्या हेतु हैं? यहां निर्वाण हैं। यहां निर्वाण का मार्ग हैं। और यहां श्रवण-गौतम जैसा योग्य पथ-प्रदर्शक हैं। तो फिर क्या कारण है कि इस क्रम से शिक्षा प्राप्त कुछ श्रावक निर्वाण प्राप्त करते हैं, कुछ नहीं करते हैं?
33. ब्राह्मण! मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दूंगा। लेकिन पहले तुम, जैसा तुम्हें लगे, वैसे मेरे इस प्रश्न का उत्तर दो। ब्राह्मण! अब यह बताओं कि क्या तुम राजगृह आने-जाने का मार्ग अच्छी तरह जानते हो?
34. श्रवण गौतम! मैं निश्चय से राजगृह आने-जाने का मार्ग अच्छी तरह जानता हूं।
35. अब कोई एक आदमी आता है और राजगृह जाने का मार्ग पूछता है। लेकिन उसे जो रास्ता बताया जाता है, उसे छोड़कर वह दूसरा रास्ता पकड़ लेता है, वह गलत-मार्ग पर चल देता है, पूर्व की बजाय पश्चिम की ओर चल देता हैं।
36. तब एक दूसरा आदमी आता है और वह भी रास्ता पूछता है और तुम उसे भी ठीक-ठीक वैसा ही रास्ता बता देते हो। वह तुम्हारे बताए रास्ते पर चलता हैं और सकुशल राजगृह पहुंच जाता हैं?
37. ब्राह्मण बोला- तो मैं क्या करूं, मेरा काम रास्ता बता देना हैं
38. भगवान बुद्ध बोले- तो ब्राह्मण! मैं भी क्या करूं, तथागत का काम भी केवल रास्ता बता देना हैं।
39. यहां यह संपूर्ण और सुस्पष्ट कथन है कि तथागत किसी को मुक्ति नहीं देते, वे केवल मुक्ति-पथ के प्रदर्शक हैं।
40. और फिर मुक्ति या निजात कहते किसे हैं?
41. हजरत मुहम्मद तथा ईसामसीह के लिए मुक्ति या निजात का मतलब हैं पैगम्बर के मध्यस्थता के कारण रूह का दोजख जाने से बच जाना।
42. बुद्ध के लिए 'मुक्ति' का मतलब है 'निर्वाण' और 'निर्वाण' का मतलब है राग द्वेष की आग का बुझ जाना।
43. ऐसे धम्म में 'मुक्ति' का आश्वासन या वचन-बद्धता हो ही कैसे सकती है?
3) बुद्ध ने अपने या अपने शासन के लिए किसी प्रकार की 'अपौरूषेयता' का दावा नहीं किया। उनका धम्म मनुष्यों के लिए एक मनुष्य द्वारा आविष्कृत धम्म था। यह 'अपौरुषेय' नहीं था
1. प्रत्येक धर्म के संस्थापक ने या तो अपने को 'ईश्वरीय' कहा है, या अपने 'धर्म' को।
2. हजरत मूसा ने यद्यपि अपने को 'ईश्वरीय' नहीं कहा, किंतु अपनी शिक्षाओं को 'ईश्वरीय' कहा है। उसने अपने अनुयायियों को कहा कि यदि उन्हें 'क्षीर' और 'मधु' के मुल्क में पहुंचता है तो उन्हें उन शिक्षकों को स्वीकार करना पड़ेगा, क्योंकि वे 'ईश्वरीय' हो गई।
3. ईसा ने अपने 'ईश्वरीय' होने का दावा किया। उसने दावा किया कि वह 'ईश्वर-पुत्र' था। स्वभाविक तौर पर उसकी शिक्षायें भी 'ईश्वरीय' हो गई।
4. कृष्णा ने तो अपने आपको 'ईश्वर' ही कहा और अपनी शिक्षाओं को 'भगवान का वचन'।
5. तथागत ने न अपने लिये और न अपने धम्म-शासन के लिए कोई ऐसा दावा किया।
6. उनका दावा इतना ही था कि वे भी बहुत से मनुष्यों में से एक हैं और उनके संदेश एक आदमी द्वारा दूसरों को दिया गया सन्देश हैं।
7. उन्होंने कभी यह भी दावा नहीं किया कि उनकी कोई बात गलत हो ही नहीं सकती।
8. उनका दावा इतना ही था कि जहां तक उन्होंने समझा हैं उनका पथ मुक्ति का सत्य-मार्ग हैं।
9. क्योंकि इसका आधार संसार भर के मनुष्यों के जीवन का व्यापक अनुभव हैं।
10. उन्होंने कहा कि हर किसी को इस बात की स्वतंत्रता है कि वह इसके बारे में प्रश्न पूछे, परीक्षण करे और देखे कि यह सन्मार्ग हैं या नहीं?
11. धर्म के किसी भी दूसरे संस्थापक ने अपने धर्म को इस प्रकार परीक्षण की कसौटी पर कसने का खुला चैलेंज नहीं दिया।