Gautam Buddha 8 Updesh in hindi 1) परा-प्राकृतिक में विश्वास अ-धम्म हैं
1. जब भी कोई घटना घटती है, आदमी हमेशा यह जानना चाहता हैं कि यह घटना कैसे घटी? इसका क्या कारण है?
2. कभी-कभी कारण और उससे फलित होने वाला कार्य एक दूसरे से इतना समीप होते हैं कि कार्य के कारण का पता लगाना कठिन नहीं होता।
3. लेकिन कभी-कभी कारण से कार्य इतना दूर होता है कि कार्य के कारण का पता लगाना कठिन हो जाता है। सरासरी दृष्टि से देखने से उस कार्य का कोई कारण प्रतीत ही नहीं होता।
4. तब प्रश्न पैदा होता है अमुक घटना कैसे घटी?
5. बड़ा सरल सीधा-साधा उत्तर है कि घटना किसी परा-प्राकृतिक कारण से घटी जिसे बहुधा 'करिश्मा या प्रातिहार्य' भी कहा जाता हैं।
6. बुद्ध के कुछ पूर्वजों ने इस प्रश्न के विविध उत्तर दिये है।
7. पकुद कच्चान यह मानता ही नहीं था कि हर कार्य का कारण होता हैं। उसका मत था कि घटनाएं बिना किसी कारण के ही घटती हैं।
8. मक्खली गोशाल मानता था कि हर घटना का कारण होना चाहिए। लेकिन वह प्रचार करता था कि कारण आदमी की शक्ति से बाहर किसी 'प्राकृति' किसी 'अनिवार्य'आवश्यकता, किसी 'अनुत्पन्न नियम' अथवा किसी 'भाग्य' में ही खोजना चाहिए।
9. भगवान बुद्ध ने इस प्रकार के सिद्धांतों का खण्ड़न किया। उनका कहना था कि इतना ही नहीं कि हर घटना का कोई न कोई कारण होता है; बल्कि वह कारण या तो कोई न कोई मानवी कारण होता है या प्राकृतिक होता हैं।
10. काल (समय), प्रकृति, आवश्यकता (?) आदि को किसी घटना का कारण मानने के खिलाफ उनका यहां विरोध था।
11. यदि काल (समय), प्रकृति, आवश्यकता (?) आदि को किसी घटना के एकमात्र कारण है, तो हमारी अपनी स्थिति क्या रह जाती है?
12. तो क्या आदमी है काल (समय), प्रकृति, अकस्मात-पन, ईश्वर, भाग्य, आवश्यकता (?) आदि के हाथ की मात्र-कठ पुतली हैं?
13. यदि आदमी स्वतंत्र नहीं है तो उसके अस्तित्व का ही क्या का प्रयोजन है? यदि आदमी परा-प्राकृतिक में विश्वास रखता है तो उसकी बुद्धि का ही क्या प्रयोजन हैं?
14. यदि आदमी स्वतंत्र है, तो हर घटना का या तो कोई मानवीय कारण होना चाहिए या प्राकृतिक कारण। कोई घटना ऐसी ही हो नहीं सकती जिसका परा-प्राकृतिक कारण हो।
15. यह संभव है कि आदमी किसी घटना के वास्तविक कारण का पता न लगा सके। लेकिन यदि वह बुद्धिमान है तो किसी न किसी दिन पता लगा ही लेगा।
16. परा-प्राकृतिक-वाद का खण्ड़न करने में भगवान बुद्ध के तीन हेतु थे-
17. उनका पहला हेतु था की आदमी बुद्धवादी बने।
18. उनका दूसरा हेतु था की आदमी स्वतंत्रता पूर्वक सत्य की खोज कर सके।
19. उनका तीसरा उद्देश था कि मिथ्या-विश्वास के प्रधान-कारण की जड़ काट दी जाय, क्योंकि इसी के परिणाम-स्वरूप आदमी की खोज करने की प्रवृत्ति की हत्या हो जाती है उनका पहला हेतु था की आदमी बुद्धवादी बने।
20. यही बुद्ध धम्म का 'हेतु वाद' हैं।
21. यह 'हेतु-वाद' बुद्ध धम्म का मुख्य सिद्धांत है। यह बुद्धिवाद की शिक्षा देता है और बुद्ध-धम्म यदि बुद्धिवादी भी नहीं है तो फिर कुछ नहीं हैं।
22. यही कारण है कि परा-प्राकृतिक की पूजा अ-धम्म हैं।
2) ईश्वर में विश्वास अ-धर्म हैं
1. इस संसार को किसने पैदा किया, यह एक सामान्य प्रश्न हैं। इस दुनिया को ईश्वर ने बनाया, यह इस प्रश्न का वैसा ही सामान्य उत्तर हैं।
2. ब्राह्मणी-योजना में इस सृष्टि-रचयिता के कई नाम है-- प्रजापति, ईश्वर, ब्रह्मा या महाब्राह्मा।
3. यदि यह पूछा जाए कि यह ईश्वर कौन है, और यह कैसे अस्तित्व में आया तो इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं।
4. जो लोग 'ईश्वर' में विश्वास रखते हैं, वे उसे सर्व-शक्तिमान, सर्व-व्यापक तथा सर्व अंतर्यामी (सर्वज्ञ) कहते हैं।
5. ईश्वर में कुछ नैतिक गुण भी बतायें जाते हैं। ईश्वर को शिव (भला) कहा जाता है, ईश्वर को न्यायी कहा जाता हैं और ईश्वर को दयालु कहा जाता है।
6. प्रश्न पैदा होता है कि क्या तथागत ने ईश्वर को सृष्टि-कर्ता स्वीकार किया हैं?
7. उत्तर हैं 'नहीं'। उन्होंने स्वीकार नहीं किया।
8. इसके अनेक कारण है कि तथागत ने ईश्वर के अस्तित्व के सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया।
9. किसी ने कभी 'ईश्वर' को नहीं देखा। लोग खाली उसकी चर्चा करते हैं।
10. ईश्वर 'अज्ञात' है, 'अदृश्य' हैं।
11. कोई यह सिद्ध नहीं कर सकता कि इस संसार को ईश्वर ने बनाया है, संसार का विकास हुआ है, निर्माण नहीं हुआ।
12. इसलिए 'ईश्वर' में विश्वास करने से कौन सा लाभ हो सकता है? इससे कोई लाभ नहीं।
13. बुद्ध ने कहा ईश्वराश्रित धर्म कल्पनाश्रित हैं।
14. इसलिए ईश्वराश्रित धर्म रखने का कोई उपाय नहीं।
15. इसके केवल मिथ्याविश्वास उत्पन्न होता हैं।
16. बुद्ध ने इस प्रश्न को यहीं और यूं ही नहीं छोड़ा दिया। उन्होंने इस प्रश्न के नाना पहलुओं पर विचार किया हैं।
17. जिन कारणों से भगवान बुद्ध ने ईश्वर के अस्तित्व के सिद्धांत को अस्वीकार किया, वे अनेक हैं।
18. उनका तर्क था कि ईश्वर के अस्तित्व का सिद्धांत सत्याश्रित नहीं हैं।
19. भगवान बुद्ध ने वासेट्ठ और भारद्वाज के साथ हुई अपनी बातचीत में इसे स्पष्ट कर दिया था।
20. वासेट्ठ और भारद्वाज में एक विवाद उठ खड़ा हुआ था कि सच्चा मार्ग कौनसा है और झूठा कौनसा?
21. इस समय महान भिक्षु संघ को साथ लिए भगवान बुद्ध कोशल जनपद में विहार कर रहे थे। वह मनसाकत नाम के ब्राह्मण-गांव में अचिरवती नदी के तट पर एक बगीचे में ठहरे।
22. वासेट्ठ और भारद्वाज दोनों मनसाकत नाम की बस्ती में ही रहते थे। जब उन्होंने यह सुना कि तथागत उनकी बस्ती में आयें हैं तो वे उनके पास गए और दोनों ने भगवान बुद्ध से अपना-अपना दृष्टि-कोण निवेदन किया।
23. भारद्वाज बोला- तरूक्ख का दिखाया हुआ मार्ग सीधा मार्ग है, यह मुक्ति का सीधा पथ है और जो इस का अनुसरण करता है उसे वह ले जाकर सीधा ब्रह्म से मिला देता हैं।
24. वासेट्ठ बोला- से गौतम! बहुत से ब्राह्मण बहुत से मार्ग सुझातें हैं- अध्वय्र्य ब्राह्मण, तैत्तिरिय ब्राह्मण, कंछोक ब्राह्मण तथा भीहुवर्गीय ब्राह्मण। वे सभी, जो कोई उनके बताए पथ का अनुसरण करता है, उसे 'ब्रह्म' से मिला देते हैं।
25. जिस प्रकार किसी गांव या नगर के पास अनेक रास्ते होते है, किंतु वे सभी आकर उसी गांव में पहुंचा देते हैं- उसी तरह ब्राह्मणों द्वारा दिखाए गए सभी पद 'ब्रह्म' से जा मिलाते हैं।
26. तथागत ने प्रश्न किया-- तो वासेट्ठ! तुम्हारा क्या यह कहना है कि वे सभी मार्ग सही हैं? वासेट्ठ बोला-- श्रमण गौतम! हां मेरा यही कहना हैं।
27. लेकिन वासेट्ठ! क्या तीनों वेदों के जानकार इन ब्राह्मणों में से कोई एक भी ऐसा है जिसने 'ब्रह्म' का आमने-सामने दर्शन किया हो?
28. गौतम! नहीं!
29. क्या तीनों वेदों के जानकार ब्राह्मणों के गुरूओं में कोई एक भी ऐसा हैं, जिसने 'ब्रह्म' का आमने-सामने दर्शन किया हो?
30. गौतम! निश्चिय से नहीं!
31. तो किसी ने 'ब्रह्म' को नहीं देखा? किसी को 'ब्रह्म' का साक्षात्कार नहीं हुआ? वासेट्ठ बोला- हां ऐसा ही हैं। तब तुम यह कैसे मानते हो कि ब्राह्मणों का कथन सत्याश्रित हैं।
32. वासेट्ठ! जैसे कोई अंधों की कतार हो। न आगे आगे चलने वाला अंधा देख सकता हो, न बीच में चलने वाला अंधा देख सकता हो और न पीछे चलने वाला अंधा देख सकता हो- इसी तरह वासेट्ठ! मुझे लगता है कि ब्राह्मणों का कथन केवल अंधा कथन हैं। न आगे आगे चलने वाला देखता हैं, न बीच में चलने वाला देखता हैं और न पीछे चलने वाला देखता हैं। इन ब्राह्मणों की बातचीत केवल उपहासास्पद है; शब्द-मात्र जिसमें कुछ भी सार नहीं।
33. वासेट्ठ! क्या यह ठीक ऐसा ही नहीं हैं जैसे किसी आदमी का किसी स्त्री से प्रेम हो गया हो, जिसे उसने कभी देखा न हो? वासेट्ठ बोला- हां, यह तो ऐसा ही हैं।
34. वासेट्ठ! अब तुम बताओ कि यह कैसा होगा जब लोग उस आदमी से पूछेंगे कि मित्र! तुम जिस सारे प्रदेश की सुन्दरतम स्त्री से इतना प्रेम करने की बात करते हो, वह कौन हैं? वह छत्रिय जाति से हैं? ब्राह्मण जाति से हैं? वैश्य जाति से हैं अथवा शूद्र जाति से हैं?
35. महाब्रह्मा, सृष्टि के तथाकथित रचयिता की चर्चा करते हुए, तथागत ने भारद्वाज और बासेट्ठ को कहा मित्रों! जिस प्राणी ने पहले जन्म लिया था, वह अपने बारे में सोचने लगा मैं ब्रह्मा हूं, महाब्रह्मा हूं, विजेता हूं, अविजित हूं, सर्व-द्रष्टा हूं, सर्वाधिकारी हूं, मालिक हूं, निर्माता हूं, रचयिता हूं, मुख्य हूं, व्यवस्थापक हूं, आप ही अपना स्वामी हूं और जो हैं तथा जो भविष्य में पैदा होने वाले है, उन सब का पिता हूं। मुझे ही से ये यह सब प्राणी उत्पन्न होते हैं।
36. तो इसका यह मतलब होगा न कि जो अब हैं और जो भविष्य उत्पन्न होने वाले हैं, ब्रह्मा सब का पिता हैं?
37. तुम्हारा कहना है कि या तो पूज्य, विजेता, अविजित, जो हैं तथा जो होंगे उन सबका पिता, जिससे हम सब की उत्पत्ति हुई है- ऐसा जो यह ब्रह्म है, यह स्थायी हैं, सतत रहने वाला है, नित्य है, अपरिवर्तन-शील है, और वह अनन्त काल तक ऐसा ही रहेगा। तो हम जिन्हें ब्रह्मा ने उत्पन्न किया है, जो ब्रह्म के यहां से यहां आए है, सभी अनित्य क्यों हैं? परिवर्तनशील क्यों हैं, अस्थिर क्यों हैं, अल्पजीवी क्यों हैं? मरणधर्मी क्यों हैं?
38. इसका भी वासेट्ठ के पास कोई उत्तर न था।
39. तथागत का तीसरा तर्क ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ता से संबंधित था। यदि ईश्वर सर्वशक्तिमान है और सृष्टि का पर्याप्त कारण है, तो फिर आदमी के दिल में कुछ करने की इच्छा ही उत्पन्न नहीं हो सकती, उसे कुछ करने की आवश्यकता भी नहीं रह सकती, न उसके मन में कुछ करने का किसी भी तरह का कोई भी प्रयत्न करने का कोई संकल्प ही पैदा हो सकता हैं। यदि यह ऐसा ही है तो ब्रह्मा ने आदमी को पैदा ही क्यों किया?
40. इसका भी वासेट्ठ के पास कोई उत्तर न था।
41. तथागत का चोथा तर्क था यदि ईश्वर 'शिव' है, कल्याण-स्वरूप है तो आदमी हत्यारे, चोर, व्यभिचारी, झूठे, चुगलखोर, बकवासी, लोभी, द्वेषी और कुमार्गी क्यों हो जाते हैं? क्या किसी अच्छे, भले, शिव स्वरूप ईश्वर के रहते यह संभव हैं?
42. तथागत का पांचवा तर्क ईश्वर के सर्वज्ञ, न्याय और दयालु होने से संबंधित था।
43. यदि कोई ऐसा महान सृष्टि-कर्ता है जो न्यायी भी है और दयालु भी है, तो संसार में इतना अन्याय क्यों हो रहा हैं? भगवान बुद्ध का प्रश्न था। उन्होंने कहा-- जिसके पास भी आंख है वह इस दर्दनाक हालत को देख सकता हैं? ब्रह्मा अपनी रचना को सुधारता क्यों नहीं हैं? यदि उसकी शक्ति इतनी असीम है कि उसे कोई रोकने वाला नहीं तो उसके हाथ ही क्यों ऐसे है कि शायद ही कभी किसी का कल्याण करते हों? उसकी सारी की सारी सृष्टि दुःख क्यों हो रही हैं? वह सभी को सुखी क्यों नहीं रखता हैं? चारों ओर ठगी, झूठ और अज्ञान क्यों फैला हुआ है? सत्य पर झूठ क्यों बाजी मार लेता हैं? सत्य और न्याय क्यों पराजित हो जाते हैं? मैं तुम्हारे ब्रह्म को पर-अन्यायी मानता हूं जिसने केवल अन्याय को आश्रय देने के लिए इस जगत की रचना की।
44. यदि सभी प्राणियों में कोई ऐसा सर्वशक्तिमान ईश्वर व्याप्त है जो उन्हें सुखी अथवा दुःखी बनाता हैं, और जो उन से पाप पुण्य कराता हैं तो ऐसा ईश्वर भी पाप से सनता हैं। या तो आदमी ईश्वर की आज्ञा में नहीं हैं या ईश्वर न्यायी और नेक नहीं हैं अथवा ईश्वर अंधा है।
45. ईश्वर के अस्तित्व के सिद्धांत के विरुद्ध उनका अगला तर्क यह था कि ईश्वर की चर्चा से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।
46. भगवान बुद्ध के अनुसार धम्म की धुरी ईश्वर और आदमी का संबंध नहीं हैं, बल्कि आदमी आदमी का संबंध हैं। धम्म का प्रयोजन यही है कि वह आदमी को शिक्षा दे कि वह दूसरे आदमियों के साथ कैसे व्यवहार करें ताकि सभी आदमी प्रसन्न रह सकें।
47. एक और भी कारण था जिसकी वजह से तथागत ईश्वर के अस्तित्व के सिद्धांत के इतने खिलाफ थे।
48. वह धार्मिक रस्मों और व्यर्थ के धार्मिक क्रिया-कलाप के विरोधी थे। उनके विरोध का कारण यही था कि ये सब मिथ्या-विश्वास के घर हैं और मिथ्या विश्वास सम्यक-दृष्टि की शत्रु हैं। उस सम्यक-दृष्टि का जो तथागत के आर्य अष्टांगिक-मार्ग का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है।
49. तथागत की दृष्टि में ईश्वर-विश्वास बड़ी खतरनाक बात थी। क्योंकि ईश्वर-विश्वास की प्रार्थना और पूजा की सामर्थ्य में विश्वास उत्पादक हैं, और प्रार्थना कराने की जरूरत नहीं पादरी-पुरोहित को जन्म दिया और पुरोहित ही वह शरारती दिमाग था जिसने इतने अंधविश्वास को जन्म दिया और सम्यक-दृष्टि के मार्ग को अवरुद्ध कर दिया।
50. ईश्वर के अस्तित्व के विरुद्ध दिए गए इन तर्को में से कुछ व्यवहारिक थे, कुछ मात्र सौद्धान्तिक। तथागत जानते थे कि ये ईश्वर के अस्तित्व के विश्वास के लिए एकदम मारक-मार्ग तक नहीं हैं।
51. लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि तथागत ने कोई मारक-तर्क दिया ही नहीं। एक तर्क उन्होंने दिया जो निश्चयात्मक रूप से ईश्वर-विश्वास के लिए प्राण घातक हैं। यह उनके प्रतीत्य समुत्पाद के सिद्धांत के अंतर्गत आता है।
52. इस सिद्धांत के अनुसार ईश्वर के अनुसार ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं है, यह मुख्य प्रश्न ही नहीं हैं। न यही प्रश्न मुख्य है कि ईश्वर ने सृष्टि की रचना की वा नहीं की? असल प्रश्न यह है कि रचयिता ने सृष्टि किस प्रकार रची? यदि हम इस प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर दे सके कि संसार की रचना कैसे हुई तो उसमें से एक ईश्वर के अस्तित्व के सिद्धांत का कुछ औचित्य सिद्ध हो सकता हैं।
53. महत्वपूर्ण प्रश्न वह है कि क्या ईश्वर ने सृष्टि भाव (किसी पदार्थ) में से उत्पन्न की अथवा अभाव (-शून्य) में से?
54. यह तो विश्वास करना असंभव है कि 'कुछ नहीं' में से कुछ-जिस में से नया 'कुछ' उत्पन्न किया गया है- ईश्वर के किसी भी अन्य चीज के उत्पन्न करने के पहले से चला आया हैं। इसलिए ईश्वर उस 'कुछ' का रचयिता नहीं स्वीकार किया जा सकता तो 'कुछ' उसके भी अस्तित्व के पहले से चला रहा हैं।
55. यदि ईश्वर के किसी भी चीज की रचना करने से पहले ही किसी ने 'कुछ' में से उस चीज की रचना कर दी है जिससे ईश्वर ने सृष्टि की रचना की है तो ईश्वर सृष्टि का अदि-कारण नहीं कहला सकता।
56. भगवान बुद्ध का यह आखिरी तर्क ऐसा था कि जो ईश्वर-विश्वास के लिए सर्वथा मारक था, जिसका कुछ जवाब नहीं था।
57. मूल-स्थापना ही असत्य होने से ईश्वर को सृष्टि का रचयिता मानना अ-धम्म हैं। यह केवल 'झूठ' में विश्वास करना हैं।
3) ब्रह्म-सायुज्य पर आधारित धर्म मिथ्या-धर्म है
1. जब बुद्ध अपने धम्म का प्रचार कर रहे थे, उस समय एक मत प्रचलित था, जिसे अब हम 'वेदान्त' कहते हैं।
2. इस धर्म के सिद्धांत थोड़े से हैं और सरल हैं।
3. इस विश्व की पृष्ठ-भूमि में एक सर्व-व्यापक जीवन-तत्व विद्यमान हैं, जिसे हम 'ब्रह्म' या 'ब्रह्मन' कहते हैं।
4. यह 'ब्रह्म' एक वास्तविकता हैं।
5. 'आत्मा' और 'ब्रह्म' में कोई अंतर नहीं, दोनों एक ही हैं।
6. 'जीवात्मा' और 'ब्रह्मात्मा' की एकता तभी स्थापित हो सकती हैं, जब इसका ज्ञान हो जाए कि दोनों एक हैं।
7. 'जीवात्मा' और 'ब्रह्मात्मा' की एकता का बोध प्राप्त करने के लिए संसार का त्याग आवश्यक हैं।
8. यही सिद्धांत 'वेदान्त' कहलाते हैं।
9. बुद्ध के मन इस सिद्धांत के लिए कोई आदर न था। उनको लगता था कि इसका आधार ही मिथ्या हैं, इसकी कुछ उपयोगिता नहीं हैं और इसलिए यह अपनाने योग्य नहीं।
10. इसे भगवान बुद्ध ने वासेट्ठ और भारद्वाज नामक दो ब्राह्मण तरुणों के साथ हुई बातचीत में स्पष्ट किया हैं।
11. भगवान बुद्ध का कहना था कि किसी बात को भी सत्य स्वीकार करने के लिए उसका कोई न कोई प्रमाण होना चाहिए।
12. प्रमाण दो तरह के होते हैं, प्रत्यक्ष और अनुमान।
13. भगवान बुद्ध का सीधा प्रश्न था; क्या किसी को भी 'ब्रह्म' का प्रत्यक्ष हुआ हैं? क्या तुमने 'ब्रह्म' को देखा हैं? क्या तुमने 'ब्रह्म' से बातचीत की हैं? क्या तुमने 'ब्रह्म' को सुंघा हैं?
14. वासेट्ठ का उत्तर था- नहीं।
15. ब्रह्म के अस्तित्व का दूसरा अनुमान प्रमाण भी असंतोषजनक हैं।
16. भगवान बुद्ध का प्रश्न था-- हम किस चीज के होने से 'ब्रह्म' के होने का अनुमान लगाते हैं? इसका भी कोई उत्तर न था।
17. कुछ लोगों का कहना है कि अदृश्य वस्तु का भी अस्तित्व हो सकता हैं। इसलिए वे कहते हैं कि अदृश्य होने पर भी 'ब्रह्म' का अस्तित्व हैं।
18. यह कथन तो एक दम नंगा-कथन है और एक असंभव स्थापना लिए हुए हैं।
19. लेकिन तर्क के लिए यह मान लेते हैं कि अदृश्य होने पर भी किसी वस्तु का अस्तित्व हो सकता हैं।
20. लोग कहते हैं कि इसका सबसे अच्छा उदाहरण बिजली हैं। यह अदृश्य हैं, लेकिन तब भी इसका अस्तित्व हैं।
21. यह तर्क पर्याप्त नहीं हैं।
22. किसी अदृश्य वस्तु को किसी दूसरे दृश्य रूप में अपने आप को प्रकट करना चाहिए। तभी हम उसकी वास्तविकता स्वीकार कर सकते है।
23. लेकिन यदि कोई अदृश्य वस्तु किसी भी दूसरे रूप में अपने को प्रकट नहीं करती तो हम उसकी वास्तविकता स्वीकार नहीं कर सकते हैं।
24. हम अदृश्य होने पर भी बिजली की वास्तविकता उस से उत्पन्न होने वाले परिणामों को देखकर स्वीकार करते हैं।
25. बिजली से प्रकाश पैदा होता हैं। प्रकाश के होने से ही इस अदृश्य होने पर भी बिजली की वास्तविकता को स्वीकार करते हैं।
26. वह कौन सी दृश्य चीज है, जिसे यह अदृश्य 'ब्रह्म' की उत्पन्न करता है।
27. उत्तर हैं- 'कुछ नहीं'।
28. एक दूसरा उदाहरण दिया जा सकता हैं। कानून में भी यह सामान्य बात है कि किसी एक बात को, किसी एक स्थापना को मान लिया जाता है, उसे सिद्ध नहीं किया जाता, वह केवल एक 'कानूनी कल्पना' होती है।
29. इस तरह की 'कानूनी कल्पना' को हम सभी स्वीकार करते हैं।
30. लेकिन इस तरह की 'कानूनी कल्पना' क्यों स्वीकार की जाती हैं?
31. इसका कारण यह है कि 'कानूनी कल्पना' इसलिए स्वीकार की जाती है कि उससे न्याय संगत तथा उपयोगी परिणाम निकलता हैं।
32. 'ब्रह्म' को भी एक कल्पना मान लेते हैं। किंतु इससे कौन सा उपयोगी परिणाम निकलता हैं?
33. वासेट्ठ और भारद्वाज के पास कोई उत्तर न था।
34. उनके दिमाग में अच्छी तरह कील ठोकने के लिए उन्होंने वासेट्ठ को संबोधित करके उससे पूछा- क्या तुमने 'ब्रह्म' को देखा हैं?
35. क्या तीनों वेदों के जानकार ब्राह्मणों में कोई भी ऐसा है जिसने 'ब्रह्म' को आमने-सामने देखा हैं?
36. गौतम! निश्चय से नहीं।
37. वासेट्ठ क्या इन तीनों वेदों के जानकार ब्राह्मणों के आचार्यों में कोई एक भी हैं, जिसने 'ब्रह्म' को आमने-सामने देखा हो?
38. गौतम! निश्चय से नहीं।
39. वासेट्ठ! क्या इन ब्राह्मणों की पहले की सात पीढ़ियों में भी कोई एक भी ब्राह्मण हैं, जिसने 'ब्रह्म' को आमने-सामने देखा हो?
40. गौतम! निश्चय से नहीं।
41. अच्छा तो वासेट्ठ! क्या ब्राह्मणों के पुराने ऋषियों ने कभी कहा हैं। हम 'ब्रह्म' को जानते हैं, हमने 'ब्रह्म' को देखा है। हम जानते हैं कि वह कहां है, किधर हैं?
42. गौतम! नहीं ही।
43. तथागत ने उन दोनों ब्राह्मण तरुण से प्रश्न जारी रखा-:
44. तो वासेट्ठ! अब तुम्हें कैसा लगता हैं? यदि ऐसा ही है तो क्या तुम्हें यह नहीं लगता कि 'ब्रह्म-सायुज्य' कि ब्राह्मणों की यह सारी बात-चीत ही मूर्खतापूर्ण बात-चीत हैं?
45. वासेट्ठ! जैसे कोई अंधों की कतार हो। न आगे आगे चलने वाला अंधा देख सकता हो, न बीच में चलने वाला अंधा देख सकता हो और न पीछे चलने वाला अंधा देख सकता हो- इसी तरह वासेट्ठ! मुझे लगता है कि ब्राह्मणों का कथन केवल अंधा-कथन हैं। न आगे आगे चलने वाला देखता है, न बीच में चलने वाला देखता है, और पीछे चलने वाला देखता है, इन ब्राह्मणों की बात-चीत केवल उपहासास्पद है; शब्द-मात्र जिनमें कुछ भी सार नहीं।
46. वासेट्ठ! क्या यह ठीक ऐसा ही नहीं है जैसे किसी आदमी का किसी स्त्री से प्रेम हो गया हो जिसे, उसने कभी देखा न हो? वासेट्ठ बोला- हां! यह तो ऐसा ही हैं?
47. वासेट्ठ! अब तुम बताओ कि यह कैसा होगा जब लोग उस आदमी से पूछेंगे मित्र! तुम सारे प्रदेश की जिस सुंदरतम स्त्री से इतना प्रेम करने की बात करते हो, वह कौन है? अथवा शूद्र जाति से हैं?
48. लेकिन जब उसे पूछा जाएगा, उसका उत्तर होगा 'नहीं'।
49. और जब लोग उससे पूछेंगे कि मित्र! तुम सारे देश के जिस सुंदरतम स्त्री से इतना प्रेम करने की बात करते हो, उसका नाम क्या हैं? उसका गोत्र क्या हैं? वह लंबे कद की हैं। छोटे कद की है वा मंझले कद की हैं। क्या वह काले रंग की है, भूरे रंग की है, वा गेहुंएं रंग की हैं? वह किसी गांव, नगर या शहर में रहती हैं? लेकिन जब उसे ये सब प्रश्न पूछे जाएंगे उसका एक ही उत्तर हो- 'नहीं'।
50. तो वासेट्ठ! तुम्हें कैसा लगता हैं? क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि उस आदमी का कथन मुर्खता-पूर्ण कथन हैं?
51. दोनों ब्राह्मण तरुण बोले- गौतम! सचमुच, यह ऐसा ही हैं।
43. इसलिए 'ब्रह्म' यथार्थ नहीं है और यदि कोई धर्म 'ब्रह्माश्रित' है तो वह व्यर्थ हैं।
4) आत्मा में विश्वास अ-धम्म है
1. भगवान बुद्ध ने कहा है कि जिस धर्म का सारा दारोमदार 'आत्मा' पर है वह कल्पनाश्रित धर्म हैं।
2. आज तक किसी ने भी न तो 'आत्मा' को देखा है और न उससे बातचीत की हैं।
3. आत्मा अज्ञात है, अदृश्य हैं।
4. जो चीज वास्तव में हैं वह मन या चित्त है, 'आत्मा नहीं'। 'मन आत्मा' से भिन्न हैं।
5. तथागत ने कहा- आत्मा में विश्वास करना अनुपयोगी हैं।
6. इसलिए जो धर्म 'आत्मा' पर आश्रित है, वह अपनाने योग्य नहीं हैं।
7. ऐसा धर्म केवल मिथ्या-विश्वास का जनक हैं।
8. बुद्ध ने इस बात को यों ही नहीं छोड़ दिया हैं। तथागत ने इसकी अच्छी तरह चर्चा की हैं।
9. 'आत्मा' में विश्वास भी वैसी ही सामान्य बात हैं जैसी 'परमात्मा' विश्वास हैं।
10. 'आत्मा' में विश्वास रखना भी 'ब्राह्मणी' धर्म का एक अंग था।
11. 'ब्राह्मणी' धर्म में 'रूह' को 'आत्मा' या 'आत्मन' कहते हैं।
12. ब्राह्मणी धर्म में 'आत्मा' उस तत्व-विशेष को कहा गया है जो शरीर से पृथक, किंतु शरीर के भीतर, जन्म के समय से लेकर लगातार बना रहता हैं।
13. 'आत्मा' के विश्वास के साथ तत्सम्बन्धी दूसरे विश्वास भी जुड़े हुए हैं।
14. शरीर के साथ 'आत्मा' का मरण नहीं होता। या दूसरे जन्म के समय दूसरे शरीर के साथ जन्म ग्रहण करती हैं।
15. शरीर 'आत्मा' का एक और अतिरिक्त-परिधान हैं।
16. क्या भगवान बुद्ध 'आत्मा' में विश्वास रखते थे? नहीं, एकदम नहीं। 'आत्मा' के संबंध में उनका मत 'अनात्मा-वाद' कहलाता हैं।
17. यदि एक अशरीरी 'आत्मा' को स्वीकार कर लिया जाए तो उसके संबंध में बहुत से प्रश्न पैदा होते हैं। 'आत्मा' क्या हैं? 'आत्मा' का आगमन कहां से हुआ? शरीर के मरने पर इसका क्या होता हैं? यह कहां जाता हैं? शरीर के न रहने पर यह 'परलोक' में कैसे रहता है? वहां यह कब तक रहता हैं? जो लोग 'आत्मा' के अस्तित्व के सिद्धांत के समर्थक थे, भगवान बुद्ध ने उनसे ऐसे प्रश्नों का उत्तर चाहा था।
18. पहले तो उन्होंने अपने जिरह करने के सामान्य क्रम से यह दिखाना चाहा कि 'आत्मा' का विचार करना गोल-मटोल हैं।
19. जो 'आत्मा' के अस्तित्व में विश्वास रखते थे, उनसे भगवान बुद्ध ने जानना चाहा कि 'आत्मा' का आकार कितना बड़ा या छोटा हैं? 'आत्मा' की शक्ल कैसी हैं?
20. आनन्द स्थविर को उन्होंने कहा था-- आनन्द! आत्मा के संबंध में लोगों के अनगिनत मत हैं। कोई कहता हैं-- मेरा 'आत्मा' रूपी हैं और बड़ा ही सूक्ष्म हैं। कुछ दूसरों का कहना है कि आत्मा की शक्ल है, यह अनन्त है और यह सूक्ष्म हैं। कुछ दूसरे हैं जिनका कहना है कि यह निराकार हैं और अनन्त हैं।
21. आनन्द! 'आत्मा' के बारे में नाना तरह के मत हैं।
22. जो लोग 'आत्मा' में अस्तित्व में विश्वास करते हैं, उनकी आत्मा की कल्पना क्या हैं? यह भी भगवान बुद्ध का एक प्रश्न था। कोई कहता हैं- हमारी आत्मा सुख-दुख अननुभव-क्रिया हैं। दूसरे कहते हैं नहीं आत्मा अनुभव किया नहीं, आत्मा अननुभव-क्रिया हैं। या फिर कोई कोई कहते हैं, मेरी आत्मा अनुभव-क्रिया नहीं हैं, न यह अनुभव-क्रिया हैं, बल्कि मेरी आत्मा अनुभव करता है, मेरी आत्मा का गुण हैं अनुभव करना। आत्मा के बारे में इस तरह के नाना कल्पनाएं हैं।
23. जो लोग 'आत्मा' विश्वास रखते थे, उन से भगवान बुद्ध ने यह भी पूछा कि मरणान्तर 'आत्मा' की क्या हालत होती हैं?
24. तथागत ने यह भी प्रश्न पूछा कि क्या मरने के बाद 'आत्मा' देखी जा सकती हैं?
25. उन्हें अनगिनत गोल-मटोल जवाब मिलें।
26. क्या शरीर का नाश हो जाने पर 'आत्मा' अपने आकार-प्रकार को बनाए रखती हैं? उन्होंने देखा कि इस एक प्रश्न के आठ काल्पनिक उत्तर थे।
27. क्या 'आत्मा' शरीर के साथ मर जाती हैं? इस पर भी अनगिनत कल्पनाएं थीं।
28. तथागत ने यह भी पूछा है कि शरीर के मरने के बाद 'आत्मा' सुखी रहता है वा दुःखी रहता हैं? क्या 'आत्मा' शरीर की मृत्यु के बाद सुखी रहता हैं? कुछ कहना था कि यह एकदम दुःखी हैं। कुछ का कहना था सुखी रहता हैं। कुछ कहना था कि यह सुखी भी रहता है, दुःखी भी रहता हैं। कुछ का कहना था कि न यह सुखी है और न दुःखी रहता हैं।
29. 'आत्मा' के संबंध में इन सब मतों के बारे में तथागत का वही एक उत्तर था, जो उन्होंने चुन्द को दिया।
30. चुन्द को उन्होंने कहा था: हे चुन्द! जो श्रमण या ब्राह्मण इन मतों में से कोई भी मत रखते है, मैं उनके पास जाता हूं और उनसे पूछता हूं, मित्र! क्या आपका यह कहना ठीक हैं? और यदि वे उत्तर देते हैं, हां! मेरा मत ही ठीक हैं, शेष सब बेहूदा है, तो मैं उनके इस मत को नहीं मानता। ऐसा क्यों? क्योंकि इस विषय में लोगों का नाना मत हैं। मैं इनमें से किसी भी एक मत हो अपने मत से श्रेष्ठ मानने की तो बात ही नहीं, अपने मत के समान स्तर पर ही नहीं मानता।
31. अब महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि 'आत्मा' के अस्तित्व के सिद्धांत के विरुद्ध भगवान बुद्ध ने कौन-कौन से तर्क दिए हैं?
32. भगवान बुद्ध ने 'आत्मा' के विरुद्ध भी सामान्य रूप से वे ही तर्क दिए हैं जो उन्होंने 'परमात्मा' के विरुद्ध दिए हैं।
33. उनका एक तर्क तो यही था कि 'आत्मा' की चर्चा उतनी ही बेकार वा अनुउपयोगी है, जितनी 'परमात्मा' कि चर्चा ।
34. उनका तर्क था कि 'आत्मा' के अस्तित्व में विश्वास सम्यक-दृष्टि के विकास में उतना ही बाधक है, जितना 'परमात्मा' का विश्वास।
35. उनका तर्क था कि 'आत्मा' में विश्वास भी उतना ही मिथ्या-विश्वास का घर है जितना 'परमात्मा' में विश्वास। उनकी सम्मति में 'आत्मा' में विश्वास करना 'परमात्मा' में विश्वास करने की अपेक्षा भी अधिक खतरनाक था। क्योंकि इससे इतना ही नहीं होता कि पुरोहितों का वर्ग पैदा हो जाता है, इससे इतना ही नहीं होता कि मिथ्या-विश्वासों के जन्म का रास्ता खुल जाता है बल्कि 'आत्मा' के विश्वास के फलस्वरुप आदमी के जन्म से मरण-पर्यंत उसके समस्त जीवन पर पुरोहितशाही का अधिकार हो जाता हैं।
36. इन्हीं सामान्य तर्को के कारण कहा जाता हैं कि भगवान बुद्ध ने 'आत्मा' के बारे में अपना कोई निश्चित मत अभिव्यक्त नहीं किया। कुछ दूसरे लोगों का कहना हैं कि उन्होंने 'आत्मा' के सिद्धांत का खण्ड़न नहीं किया। कुछ औरों ने कहा है कि भगवान बुद्ध हमेशा इस प्रश्न को बचा जाते थे।
37. ये सभी मत एकदम गलत हैं। क्योंकि महाली को भगवान बुद्ध ने स्पष्ट रूप से निश्चित शब्दों में कहा कि 'आत्मा' नाम का कोई पदार्थ नहीं हैं। इसलिए 'आत्मा' के संबंध में तथागत का मत 'अनात्मावाद' कहलाता हैं।
38. 'आत्मा' के विरुद्ध सामान्य तर्क के अतिरिक्त भगवान बुद्ध ने विशेष तर्क भी दिया है जो कि उनके अनुसार 'आत्मा' के सिद्धांत के लिए एकदम मारक तर्क ही था।
39. 'आत्मा' के अस्तित्व की स्थापना के मुकाबले भगवान बुद्ध का अपना सिद्धांत या नाम-रूप का सिद्धांत।
40. यह नाम-रूप का सिद्धांत 'विभज्ज-वाद' द्वारा परीक्षण का परिणाम है, मानव-व्यक्तित्व
अथवा मानव के बड़े ही सूक्ष्म कठोर विश्लेषण का परिणाम हैं।
41. 'नाम-रूप' एक प्राणी का सामूहिक नाम हैं।
42. भगवान बुद्ध के अनुसार हर प्राणी बहुत कुछ भौतिक तत्वों तथा कुछ मानसिक तत्वों के सम्मिश्रण का परिणाम हैं। वे भौतिक तथा मानसिक तत्व 'स्कन्ध' कहलाते हैं।
43. रूप-स्कन्ध प्रधान रूप से पृथ्वी, जल, वायु तथा अग्नि- इन चार भौतिक तत्वों का परिणाम हैं। वे 'रूप' अथवा शरीर हैं।
44. रूप-स्कन्ध अतिरिक्त (चित्त-चैतसिकों का समूह) नाम स्कंध है, जिससे एक प्राणी के रचना होती है।
45. इस नाम-स्कंध को हम विज्ञान (चेतना) भी कह सकते हैं। यूं इस नाम-स्कंध के अंतर्गत वेदना (छः इंद्रियों तथा उनके विषयों के संपर्क से उत्पन्न होने वाली अभिभूत) सञ्जा (संज्ञा) तथा संखार (संस्कार) हैं। विज्ञान भी इन तीनों के साथ शामिल किया जाता हैं। (इस प्रकार पूर्व के तीन चैतसिक और विज्ञान (चित्त) को मिलाकर नाम-स्कंध होता है-- अनु) एक आधुनिक मानस-शास्त्र-वेत्ता कदाचित इसे इस रूप में कहना पसंद करेगा कि चित्त ही वह मूल स्रोत है, जिससे सभी चैतसिक उत्पन्न होते हैं (अथवा चैतसिको के समूह विशेष का नाम ही चित्त हो जाता हैं- अनु)। विज्ञान (चित्त) किसी भी प्राणी का केंद्र-बिंदु हैं।
46. पृथ्वी, जल, अग्नि, और वायु- इन चार तत्वों के सम्मिश्रण से 'विज्ञान' उत्पन्न होता हैं।
47. बुद्ध द्वारा प्रतिपादित 'विज्ञान' की उत्पत्ति के इस सिद्धांत पर एक आपत्ति उठाई जाती हैं।
48. जो इस सिद्धांत के विरोधी हैं, वे पूछते है 'विज्ञान (चित्त) की उत्पत्ति कैसे होती हैं?
49. यह सत्य है कि आदमी के जन्म के साथ विज्ञान (चित्त) की उत्पत्ति होती है और आदमी के मरण साथ विज्ञान (चित्त) का विनाश होता हैं। लेकिन साथ ही क्या यह कहा जा सकता हैं कि विज्ञान (चित्त) चार तत्वों के सम्मिश्रण का परिमाण हैं?
50. भगवान बुद्ध ने इसे इस रूप में नहीं कहा कि भौतिक तत्वों की सहस्थिति अथवा उनके सम्मिश्रण से विज्ञान (चित्त) की उत्पत्ति होती हैं। तथागत ने इसे इस रूप में कहा है कि जहां भी शरीर या रूप-काया है, वहां साथ-साथ नामकाया भी रहता हैं।
51. आधुनिक विज्ञान से एक उपमा ले। जहां-जहां विद्युत-क्षेत्र (Electric field) होता है, वहां-वहां उसके साथ आकर्षण-क्षेत्र (Magnetic field) रहता हैं। कोई नहीं जानता कि यह आकर्षण-क्षेत्र किस प्रकार उत्पन्न होता है, या किस प्रकार अस्तित्व में आता हैं? लेकिन जहां जहां विद्युत-क्षेत्र होता है, वहां वहां यह उसके साथ अनिवार्य-रूप में रहता हैं।
52. शरीर और विज्ञान (चित्त) में भी हम कुछ कुछ इसी प्रकार का संबंध क्यों न मान लें?
53. विद्युत-क्षेत्र की उपेक्षा से उसका आकर्षण-क्षेत्र विद्युत-क्षेत्र द्वारा प्रेरित क्षेत्र (Induced field) कहलाता है। तो फिर हम विज्ञान (चित्त) को भी रूप काय (शरीर) की दृष्टि से उसके द्वारा प्रेरित-क्षेत्र क्यों न कहें?
54. 'आत्मा' के विरुद्ध तथागत का तर्क यहीं समाप्त नहीं होता। अभी विशेष महत्वपूर्ण व्यक्तव्य शेष है।
55. जब विज्ञान (चित्त-चेतना) का उदय होता है तभी आदमी जीवित प्राणी बनता हैं। इसीलिए विज्ञान (चित्त-चेतना) आदमी के जीवन में प्रधान वस्तु है।
56. विज्ञान की प्रकृति है ज्ञान-मूलक, भावना-मूलक और क्रिया-शील।
57. विज्ञान को हम ज्ञान-मूलक उस समय कहते हैं जब यह हमें कुछ जानकारी देता है, कुछ ज्ञान प्रदान करता हैं- वह ज्ञान रुचिकर भी हो सकता हैं और अरुचिकर भी हो सकता है, वह अपने भीतर घटने वाली घटनाओं का भी हो सकता है, बाह्य-घटनाओं का भी हो सकता हैं।
58. विज्ञान को हम भावना-मूलक उस समय कहते हैं जब यह चित्त की उन अवस्थाओं में उपस्थित रहता हैं जो अनुकूलन-अनुभूतियां भी हो सकती है और प्रतिकूल-अनुभूतियां भी; जब भावना-मुलक ज्ञान वेदना (अनुभूति) की उत्पत्ति का कारण बनता हैं।
59. विज्ञान अपनी क्रिया-शील अवस्था में आदमी को उद्देश्य विशेष की सिद्धि के लिए कुछ करने की प्रेरणा देता हैं। क्रिया-शील विज्ञान ही संकल्पों का या इरादों का जनक हैं।
60. इस प्रकार यह स्पष्ट है कि एक प्राणी की जितनी भी क्रियायें हैं वे या तो विज्ञान के द्वारा अथवा विज्ञान के परिणाम स्वरूप पूरी होती हैं।
61. इस विश्लेषण के बाद भगवान बुद्ध प्रश्न करते है कि वह कौन सा कार्य हैं जो 'आत्मा' के करने के लिए बचा रहता हैं? 'आत्मा' के जो कार्य माने जाते है, वे सब तो विज्ञान (चित्त) द्वारा हो जाते हैं।
62. जिसका कुछ 'कार्य' ही नहीं, ऐसा 'आत्मा' एक बेहूदगी हैं।
63. इस प्रकार भगवान बुद्ध ने 'आत्मा' का अस्तित्व असिद्ध किया है।
64. यही कारण है कि 'आत्मा' का अस्तित्व स्वीकार करना अ-धम्म हैं।
5) यज्ञ (बलि-कर्म) में विश्वास अ-धर्म है
1. ब्राह्मणी धर्म यज्ञों पर निर्भर करता था।
2. कुछ यज्ञ 'नित्य कहलाते थे और कुछ यज्ञ' नैमित्तिक कहलाते थे।
3. 'नित्य' का यह मतलब था वे अनिवार्य कर्तव्य जो चाहे कोई फल मिले और चाहे न मिले करणीय ही थे।
4. 'नैमित्तिक' यज्ञ उस समय किए जाते हैं जब यजमान किसी सांसरिक इच्छा-विशेष की पूर्ति के लिये, उसके निमित्त से, वह 'यज्ञ' कराता था।
5. ब्राह्मणी-यज्ञों में सुरा-पान, पशुओं की बलि और हर तरह का आमोद प्रमोद रहता था।
6. तब भी ये यज्ञ 'धार्मिक-कृत्य' समझे जाते थे।
7. ऐसे धर्म को जिसका आधार 'यज्ञ' थे-- बुद्ध ने अपनाने योग्य नहीं समझा।
8. उन बहुत से ब्राह्मणों को जो भगवान बुद्ध से विवाद करने पहुंचे, तथागत ने अपने कारण बता दिए थे कि वह क्यों 'यज्ञों' को 'धम्म' का अंग मानने के लिए तैयार न थे।
9. लिखा मिलता हैं कि इस विषय में तीन ब्राह्मणों ने तथागत से वाद विवाद किया था।
10. उनके नाम थे, कूटदन्त, उज्जय और उदायी।
11. कूटदन्त ब्राह्मण ने भगवान बुद्ध से पूछा था कि यज्ञ के बारे में उनका क्या मत था।
12. तथागत बोले- अच्छा तो, हे ब्राह्मण सुन, ध्यान दे और जो कुछ मैं कह रहा हूं उसे सावधान रहकर सुन।
13. 'बहुत अच्छा' कूटदन्त बोला। तब भगवान बुद्ध ने कहा-
14. हे ब्राह्मण! बहुत पुराने समय में महा-विजेता नाम का एक राजा था, बड़ा प्रतापी, बहुत धन वाला तथा बहुत संपत्ति वाला। उसके पास सोने चांदी के भण्डा़र थे, सुख-भोग के सब साधन थे, धन-धान्य की कमी न थी। उसके खजाने धन से और उसके कोठे अनाज से भरे थे।
15. अब, एक बार, जब राजा महाविजेता अकेला विराग-मग्न बैठा था, उसके मन में बड़े जोर से यह विचार पैदा हुआ। आदमी के सुख-भोग के सामानों की मेरे पास कमी नहीं। मैं पृथ्वी का चक्रवर्ती राजा हूं। यह अच्छा होगा, यदि मैं एक महान यज्ञ करूं जो दीर्घकाल तक मेरे कल्याण के लिए हो।
16. तब उस ब्राह्मण ने, जो राजा का पूरोहित था, राजा से कहा- राजन! इस समय आपकी प्रजा हैरान की जा रही हैं और लूटी जा रही हैं। बहुत से डाकू जो गांव और नगरों में लूटमार करते हैं और जिन्होंने रास्ते आरक्षित कर दिए हैं। जब तक ऐसी अवस्था हैं, तब तक यदि, महाराज ने प्रजा पर एक नया टैक्स और लगाया जो महाराज निश्चय से गलती करेंगे।
17. लेकिन हो सकता है कि महाराज यह सोचें कि मैं शीघ्र ही उन दुष्टों की सब कारवाईयां रोक दूंगा- उनको पकड़वा दूंगा, उन पर जुर्माने करूंगा,
उनको देश निकाला दे दूंगा तथा उनको मरवा ड़ालूंगा। लेकिन इस तरह से उनकी स्वेच्छा चारिता नहीं रोकी जा सकती। जो अदण्डि़त बच रहेंगे, वे प्रजा को हैराण करते रहेंगे।
18. इस गड़बड़ी को जड़मूल से समाप्त करने का एक रास्ता हैं। आपके राज्य में जितने भी ऐसे हो जो पशु पालते हो या खेती करते हो, उन्हें महाराज! आप खाने को दें और खेतों में बीज बोने के लिए बीज दें। आपके राज्य में जितने भी ऐसे हो जो व्यापार में लगे हों। उन्हें महाराज! और व्यापार करने के लिए पूंजी दें। आपके राज्य में जितने भी ऐसे हों जो सरकारी कर्मचारी हों, उन्हें महाराज! आप भोजन और वेतन दें।
19. तब जब सब कोई अपने अपने काम में लगे रहेंगे तो वे देश में उत्पात नहीं मचाएंगे, राजा को राज्य कर से अधिक आय होने लगेगी, देश सुख और शांति का अनुभव करेगा; और जनता खुशहाल हो जाएगी। लोग अपने बच्चों को गोद में लेकर नाचेंगे और निर्भय होकर खुले दरवाजे सोचेंगे।
20. तब हे ब्राह्मण! राजा महाविजेता ने अपने पुरोहित की बात मान वैसा ही किया। लोग अपने काम में लग गए। उन्होंने देश में उत्पात मचाना छोड़ दिया। राजा को राज्य कर से अधिक आय होने लगी। देश सुखी और शांति का अनुभव करने लगा। जनता खुशहाल हो गई। लोग अपने अपने बच्चों को गोद में लेकर नाचने लगे और निर्भय होकर खुले दरवाजे सोने लगे।
21. जब उत्पाद शांत हो गया, तो राजा महाविजेता ने फिर अपने पुरोहित से कहा-- अब उत्पाद शांत हैं। देश खुशहाल हैं। मैं अपने दीर्घकालीन कल्याण के लिए वह महान यज्ञ कराना चाहता हूं-- आप बतायें कि कैसे करूं?
22. पुरोहित ने राजा को उत्तर देते हुए कहा-- राजन! अब यज्ञ होने दें। राजन! आप अपनी राजधानी में और राजधानी के बाहर समस्त देश में ऐसे जितने भी क्षत्रिय हों जो प्रतिष्ठित ब्राह्मण हों, या जो संपन्न गृहपति हों-- उन सब को निमंत्रण भेजें और कहें कि मैं अपने दीर्घकालीन कल्याण के लिए महान यज्ञ करना चाहता हूं। आप उसकी स्वीकृति दे दें।
23. तब हे ब्राह्मण कूटदन्त! जैसा पुरोहित ने कहा था, वैसा ही राजा ने किया क्षत्रियों, मंत्रियों, ब्राह्मणों तथा गृहपतियों ने भी वैसा ही उत्तर दिया-- राजन! आप महान यज्ञ करें। राजन! यह समय महान यज्ञ करने के लिए अनुकूल हैं।
24. राजा महाविजेता बुद्धिमान था और अनेक बातों में बहुत कुशल था। उनका पुरोहित भी वैसा ही बुद्धिमान था और बहुत बातों में कुशल था।
25. हे ब्राह्मण! तब उस पुरोहित ने यज्ञ के आरंभ होने से पहले राजा को बता दिया कि उसमें कितना धन व्यय हो सकता हैं?
26. पुरोहित ने कहा-- महाराज! कहीं ऐसा न हो कि यज्ञ आरंभ करने से पूर्व, या यज्ञ करते समय अथवा यज्ञ को चुकाने के अनन्तर आपके मन में विचार उत्पन्न हो कि अरे! इस यज्ञ में तो मेरी संपत्ति का बड़ा हिस्सा लग गया, तो ऐसा विचार मन में नहीं आना चाहियें।
27. और हे ब्राह्मण! उस पुरोहित ने यज्ञ आरंभ होने से ही पहले, बाद में राजा के मन में, यज्ञ में भाग लेने वालों को लेकर कोई पश्चाताप न हों, इसलिए राजा को कहा-- राजन! आप के यज्ञ में हर तरह के लोग आएंगे-- ऐसे भी जो जीव-हत्या करते हैं ऐसे भी जो जीव-हत्या नहीं करते। ऐसे भी जो चोरी करते हैं, और ऐसे भी जो नहीं करते। ऐसे भी जो झूठ बोलते हैं, ऐसे भी जो झूठ नहीं बोलते। ऐसे भी जो झूठ चुगली खाते हैं, ऐसे भी जो झूठी चुगली नहीं खातें। ऐसे भी जो कठोर बोलते हैं, ऐसे भी जो कठोर नहीं बोलतें। ऐसे भी जो लोभ करते हैं, ऐसे भी जो लोभ नहीं करते। ऐसे भी जो द्वेष करते हैं, ऐसे भी जो द्वेष नहीं करते। ऐसे भी जिनकी सम्यक-दृष्टि होगी; ऐसे भी जिनकी मिथ्या-दृष्टि होगी। इन्हें जो बुरे हों, उन्हें अपनी बुराई के साथ पृथक रहने दें। और राजन! जो भले हों, उनके लिए आप यथायोग्य करें, उन्हें संतुष्ट करें, इससे आपके चित्त को आंतरिक शांति प्राप्त होगी।
28. और हे ब्राह्मण! महाविजेता द्वारा कराये गये इस यज्ञ में वृषभ हत्या नहीं हुई थी, बकरियों के गले नहीं कटे थे, मुर्गे-मुर्गीयां नहीं मारी गई थी न मोटे सुअर और अन्य न किसी भी तरह के प्राणियों की बलि चढ़ाई गई थी। यूप (वध-स्तंभ) बनाने के लिए कोई पेड़ नहीं काटे गए थे, और यज्ञ-स्थल पर बिखरने के लिए दूब-घास नहीं काटी गई थी। और वहां जो दास, जो इधर-उधर आने-जाने वाले तथा जो अन्य कर्मी काम कर रहे थे, वे दण्ड या भय के कारण अश्रु-मुख होकर काम नहीं कर रहे थे। जिसकी सहायता करने की इच्छा होती थी, काम करता था, जिसकी इच्छा नहीं होती थी, नहीं करता था। जो किसी ने करना चाहा, वह किया; जो नहीं करना चाहा वह बिना किए छोड़ दिया गया। उस यज्ञ में घी, तेल, मक्खन, दूध, मधु और शक्कर के अतिरिक्त और कुछ नहीं काम में आया।
29. यदि आप कोई यज्ञ करना ही चाहते हैं, तो आप का 'यज्ञ' वैसा ही होना चाहिए जैसे महाराज महाविजेता का। अन्यथा यज्ञ व्यर्थ हैं। पशुओं की बलि निर्दयता मात्र हैं। 'यज्ञ' कभी धर्म का अंग हो ही नहीं सकते। यह 'धर्म' का निकृष्ठ तम रूप है जो कहता है कि पशुओं की बलि देने से आदमी स्वर्ग जा सकते हैं।
30. तब कूटदन्त ब्राह्मण ने प्रश्न किया हे गौतम! तो क्या कोई दूसरा 'यज्ञ' है जिसमें पशुओं की बलि तो न देनी पड़े किंतु जिसके करने में अधिक फल मिलने मिले अधिक कल्याण हों।
31. हे ब्राह्मण! हां, ऐसा हैं।
32. हे गौतम! ऐसा 'यज्ञ' कैसा होगा?
33. हे ब्राह्मण! जब एक आदमी श्रद्धायुक्त होकर
i) जीव-हत्या से विरत रहने का संकल्प करता हैं,
ii) चोरी से विरत रहने का संकल्प करता हैं,
iii) काम-भोग संबंधी मिथ्याचार से विरत रहने का संकल्प करता हैं,
iv) झूठ से विरत रहने का संकल्प करता हैं, तथा
v) सूरा-मेरय--मद्य आदि नशीली चीजों के सेवन करने से विरत रहने का संकल्प करता हैं,
तो यह एक ऐसा यज्ञ है जो यज्ञों के निमित्त बड़े खर्चे करने से अच्छा है, जो भिक्षुओं के ठहरने के निमित्त विहरादि बनवाने से भी अच्छा है, जो निरंतर भिक्षा देते रहने से भी अच्छा है, जो त्रि-शरण ग्रहण करने से भी अच्छा हैं।
34. जब भगवान बुद्ध ने कहा कि तो कूटदन्त ब्राह्मण को भी कहना पड़ा-- श्रवण गौतम! आपका कथन सर्व-श्रेष्ठ हैं। श्रवण गौतम! आपका कथन सर्वश्रेष्ठ हैं।
(2)
1. अब ब्राह्मण उज्जय ने तथागत से पूछा--
2. श्रमण गौतम! क्या आप यज्ञों के प्रशंसक हैं?
3. ब्राह्मण! न मैं हर 'यज्ञ' की प्रशंसा करता हूं, न मैं हर 'यज्ञ' को सदोष कहता हूं। हे ब्राह्मण! जिस किसी यज्ञ में भी गौ-हत्या हो, बकरियां और भेड़ें मारी जायें, मुर्गे-मुर्गियां और सूअर मारे जायें और भी दूसरे नाना तरह के प्राणियों की हत्या हो-- इस प्रकार का 'यज्ञ' जिस मे पशु बलि दी जाती हो, हे ब्राह्मण! मेरी प्रशंसा का पात्र नहीं। ऐसा क्यों?
4. हे ब्राह्मण! इस प्रकार के 'यज्ञ' के-- जिसमें पशुओं की हत्या होती हैं-- न तो श्रेष्ठ जन पास फटकते हैं और न श्रेष्ठ मार्ग पर चलने वाले ही पास फटकते हैं।
5. लेकिन हे ब्राह्मण! जिस यज्ञ में गौ-हत्या नहीं होती-- पशुओं की हत्या नहीं होती-- ऐसे यज्ञ जिसमें पशुओं की बलि नहीं दी जाती-- ऐसा यज्ञ मेरी प्रशंसा का पात्र हैं। उदाहरण के लिए चिर- स्थापित दान या परिवार के सदस्यों के कल्याण के लिए त्याग। ऐसा क्यों?
6. क्योंकि ब्राह्मण! जिस यज्ञ में पशुओं की बलि नहीं दी जाती, ऐसे यज्ञ के श्रेष्ठ जन भी पास जाते हैं और वे भी जो श्रेष्ठ मार्ग पर आरुढ़ हैं।
(3)
1. उदायी ब्राह्मण ने भी तथागत से वही प्रश्न पूछा जो उज्जय ब्राह्मण ने पूछा-
2. श्रमण गौतम! क्या आप 'यज्ञ' की प्रशंसा करते हैं? तथागत ने जो उत्तर उज्जय को दिया था, वही उदायी ब्राह्मण को दिया
3. तथागत बोले--
4. ऐसे यज्ञ के-- जो उचित समय पर किया जाए, ऐसे यज्ञ के-- जिसमें पशुओं की बलि न दी जाए, वे निकट जाते हैं, जो श्रेष्ठ जीवी हैं, जिनकी आंखों पर से पर्दा हट गया हैं।
जो कालातीत हैं;
जो जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हैं, वे
तथा वैसे ही दूसरे प्राणज्ञ तथा कुशलज्ञ यज्ञ प्रशंसा करते हैं। यज्ञ अथवा श्रद्धायुक्त-कर्म में
श्रद्धायुक्त चित्त से, पुष्प-क्षेत्र में,
जो बीज बोया जाता है;
अथवा जो श्रेष्ठ-जीवी हैं,
उन्हें जो दान दिया जाता हैं,
उससे देवता भी प्रसन्न होते हैं,
इस प्रकार के दान से विज्ञजन विद्या का लाभ करते हैं, तथा दुःख से मुक्त हो, सुखी अवस्था को प्राप्त होते हैं।
6) कल्पनाश्रित विश्वास अ-धम्म है
(1)
1. ऐसे प्रश्नों का मन में उठना स्वभाविक था जैसे 1) क्या मैं पहले था? 2) क्या मैं पहले नहीं था? 3) उस समय में क्या था? 4) मैं क्या होकर क्या हुआ? 5) क्या मैं भविष्य में होऊंगा? 6) क्या मैं भविष्य में नहीं होऊंगा? 7) तब मैं क्या होऊंगा? 8) तब मैं कैसे होऊंगा? 9) मैं क्या होऊंगा? अथवा वह अपने वर्तमान के विषय में ही संदेह-शील होता हैं 1) क्या मैं हूं? 2) क्या मैं नहीं हूं? 3) मैं हूं क्या? 4) मैं कैसे हूं? 5) यह प्राणी, कहां से आया? 6) यह किधर जायेगा?
2. इसी प्रकार विश्व के बारे में बहुत से प्रश्न पूछे गए थे। कुछ इस प्रकार थे-
3. यह संसार किस प्रकार उत्पन्न किया गया? क्या संसार अनन्त हैं?
4. पहले प्रश्न के उत्तर में किसी का कहना था कि प्रत्येक वस्तु ब्रह्मा द्वारा उत्पन्न की गई है-- दूसरों का कहना था कि यह प्रजापति द्वारा उत्पन्न की गई है।
5. दूसरे प्रश्न के उत्तर में किसी का कहना था कि यह अनन्त हैं। किसी का कहना था, यह शांत हैं। किसी का कहना था वह ससीम (सीमा सहित) है, किसी का कहना था यह असीम हैं।
6. इन प्रश्नों को बुद्ध ने अ-व्याकृत रखा। ऐसे प्रश्नों का स्वागत ही नहीं किया। उनका कहना था कि ऐसे प्रश्नों को पूछने वाले और उत्तर देने वाले- दोनों एक कुछ-कुछ विकृत-मास्तिष्क होने चाहिए।
7. इन प्रश्नों के उत्तर देने वा दे सकने का मतलब होगा कि आदमी को 'सर्वज्ञ' होना चाहिए जो कि कोई होता ही नहीं।
8. उनका कहना था कि वह ऐसे 'सर्वज्ञ' नहीं कि इस तरह के प्रश्नों का उत्तर दें। कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि जो कुछ हम जानना चाहते हैं, वह वह सब कुछ जानता हैं और न कोई यह दावा कर सकता है कि किसी भी समय जो कुछ हम जानना चाहते है वह किसी को हर समय ज्ञात रहता है। हमेशा कुछ न कुछ अज्ञात रहता ही हैं।
9. इन्हीं कारणों से भगवान बुद्ध ने ऐसी सब बातों को अपने धम्म से दूर ही दूर रखा।
10. उनकी दृष्टि में जो धर्म ऐसी बातों का धर्म का अंग माने वह अपनाने लायक नहीं हैं।
(2)
1. जिन सिद्धांतों को बुद्ध के समकालीन कुछ आचार्यों ने अपने अपने धर्म का आधार बनाया था, उन सिद्धांतों का संबंध दो बातों से था 1) 'आत्मा' से और 2) विश्व के आरंभ से।
2. वे 'आत्मा' के बारे में या अपने आपके बारे में कुछ प्रश्न उठाते थे। वह पूछतें थे: 1) क्या मैं पहले था? 2) क्या मैं पहले नहीं था? 3) उस समय में क्या था? 4) मैं क्या होकर क्या हुआ? 5) क्या मैं भविष्य में होऊंगा? 6) क्या मैं भविष्य में नहीं होऊंगा? 7) तब मैं क्या होऊंगा? 8) तब मैं कैसे होऊंगा? 9) मैं क्या होगा क्या होऊंगा? अथवा वह अपने वर्तमान के ही विषय में संदेह-शील होता है। 1) क्या मैं हूं? 2) क्या मैं नहीं हूं? 3) मैं हूं क्या? 4) मैं कैसे हूं? 5) यह प्राणी, कहां से आया? 6) यह किधर जाएगा?
3. दूसरों ने विश्व के आरंभ के विषय में प्रश्न पूछे।
4. कुछ ने कहा-- इसे ब्रह्मा ने पैदा किया हैं।
5. दूसरों ने कहा, इसे स्वयं प्रजापति ने अपने आप की आहुति देकर उत्पन्न किया है।
6. दूसरे आचार्यों ने कुछ प्रश्न दूसरे प्रश्न पूछे: संसार अनन्त हैं? संसार अनन्त नहीं हैं? संसार ससीम हैं? संसार असीम है? जो शरीर है, वही जीव है? शरीर अन्य है, जीव अन्य है? सत्य-ज्ञाता (तथागत) मरने के बाद रहते है? तथागत मरने के बाद नहीं रहते? वे रहते भी है और नहीं भी रहते? वे न रहते हैं और न नहीं रहतें हैं?
7. भगवान बुद्ध का कहना था कि ऐसे प्रश्नों उन्हीं लोगों द्वारा पूछे जा सकते हैं कि जिनके मास्तिष्क कुछ विकृत हों।
8. भगवान बुद्ध ने ऐसे धार्मिक सिद्धांतों का क्यों खण्ड़न किया, इसके तीन कारण थे।
9. पहला कारण तो यही था कि इनको धम्म का अंग बनाने में कोई तुक नहीं था।
10. दूसरे इन प्रश्नों का उत्तर कोई 'सर्वज्ञ' ही दे सकता हैं, जो कोई होता ही नहीं। उन्होंने अपने प्रवचनों में इसी बात पर जोर दिया हैं।
11. उन्होंने कहा कि एक ही समय और उसी समय कोई भी सभी बातों का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। ज्ञान का कही अन्त नहीं हैं। कुछ न कुछ और अधिक जानने के लिए हमेशा रहेगा।
12. इन सिद्धांतों के विरुद्ध तीसरा तर्क यह था कि ये सब सिद्धांत केवल 'कल्पनाश्रित' थे। उनका 'सत्य' परीक्षित नहीं था और न उनके 'सत्य' की परीक्षा ही हो सकती थी।
13. वे केवल कल्पना के घोड़े की लगाम को ढी़ला छोड़ देने के लिए परिणाम थे। उनके पीछे कहीं कोई तथ्य न था।
14. और फिर इन कल्पनाश्रित सिद्धांतों का एक आदमी और दूसरे आदमी के आपसी संबंध में क्या प्रयोजन था? एकदम कुछ भी नहीं।
15. तथागत ने यही नहीं माना था कि संसार का निर्माण हुआ हैं। तथागत की मान्यता थी कि संसार का विकास हुआ है
7) धर्म की पुस्तकों का वाचन मात्र अ-धम्म हैं
1. ब्राह्मणों ने सारा जोर (अपने लिए) 'विद्या' पर दिया हैं। उन्होंने शिक्षा दी है कि 'विद्या' ही 'अथ' और 'विद्या' ही 'इति' है। इससे आगे और कुछ नहीं।
2. इसके विरुद्ध भगवान बुद्ध सभी के लिए 'विद्या' के पक्षपाती थे। इसके अतिरिक्त उन्हें इस बात की भी बड़ी चिंता थी कि 'विद्या' प्राप्त करके आदमी उसका क्या उपयोग करता है? उसकी 'विद्या' विद्या के लिए न थी, उसकी विद्या उपयोग के लिए थी।
3. इसलिए वे इस बात पर खास जोर देते ही थे कि जो विद्वान हो उसे शीलवान भी होना चाहिए। बिना 'शील' की 'विद्या' अत्यंत खतरनाक थी।
4. भिक्षु पटिसेन को जो कुछ भगवान बुद्ध ने कहा था उससे 'विद्या' के विरुद्ध 'शील' का महत्व स्पष्ट होता हैं।
5. पुराने समय में जब भगवान बुद्ध श्रावस्ती में बिहार कर रहे थे, उस समय पटिसेन नाम का एक वृद्ध भिक्षु था, जो इतना अधिक कूढ़-मगज का था कि एक गाथा भी याद न कर सकता था।
6. बुद्ध ने दिन प्रतिदन पांच सौ अर्हतो को उसे शिक्षा देने के लिए कहा। लेकिन तीन वर्ष के बाद भी उसे एक भी गाथा याद न थी।
7. तब उस जनपद के चारों प्रकार के लोग- भिक्षु, भिक्षुणियां, उपासक, उपासिकाएं- उसकी हंसी उड़ाने लगे। भगवान बुद्ध को उस पर दया आई। उन्होंने उसे पास बुलाया और बड़ी कोमलता के साथ यह गाथा कहीं--
कायेन संवरो साधु, साधु वाचाय संवरो
मनासा संवरो साधु, साधु सब्बत्व संवरो
सब्बत्व संवुतो भिक्षु सब्ब दुक्का पमुच्चति
(अर्थ-- जिसका मुंह संयत है, जिसके विचार-संयत है, और जो अपने शरीर से भी विरुद्धाचरण नहीं करता, वह निर्वाण प्राप्त करता हैं)
8. तथागत की करुणा से जैसे पटिसेन के हृदय की कली खिल गई। वृद्ध को पटिसेन ने भी वह गाथा दोहराई।
9. तब भगवान बुद्ध ने उससे कहा- हे वृद्ध! अब तुम केवल एक गाथा कह सकते हो, और लोग इसे जानते हैं। इसीलिए अभी भी लोग तुम्हारा मजाक उड़ाएंगे। मैं अब तुम्हें इस गाथा का अर्थ भी समझाता हूं। तुम ध्यानपूर्वक सुनों।
10. तब भगवान बुद्ध ने शरीर के तीन अकुशल-कर्म, वाणी के चार अकुशल-कर्म और मन के तीन अकुशल-कर्म दस अकुशल-कर्म समझाएं। इन दस अकुशल कर्मों के त्याग से आदमी निर्वाण प्राप्त कर सकता हैं। इस प्रकार समझाएं जाने पर भिक्षु पटिसेन को सत्य का बोध हो गया और वह अर्हत्व-पद का लाभी हुआ।
11. अब इस समय विहार में पांच सौ भिक्षुणियां रह रही थी। उन्होंने अपने में से एक को बुद्ध के पास भेजा कि वे किसी भिक्षु को उन्हें धम्मोपदेश देने के लिए भेज दें।
12. उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान बुद्ध ने वृद्ध पटिसेन को ही उन्हें धम्मोपदेश देने के लिए भेजना चाहा।
13. जब उन भिक्षुणियों को यह पता लगा तो वे आपस में बहुत हंसी। उन्होंने तय किया कि दूसरे दिन वृद्ध पटिसेन के आने पर वे गाथा का उल्टा उच्चारण कर उसे गड़बड़ा देंगी, और शर्मिंदा करेंगी।
14. दूसरे दिन जब वृद्ध पटिसेन आया, छोटी-बड़ी सभी भिखुणियों ने उसका स्वागत किया और तब उसे अभिवादन करते समय वे आपस में हंसने लगी।
15. तब बैठने पर उन्होंने वृद्ध पटिसेन को भोजन कराया। जब भोजन हो चुका और उसके हाथ धो लिए तब उन्होंने उसे अपना प्रवचन आरंभ करने के लिए कहा। उनके प्रार्थना करने पर वृद्ध पटिसेन ने धम्मासन ग्रहण किया और अपना प्रवचन आरंभ किया-
16. बहनों! मेरी बुद्धि अधिक नहीं हैं। मेरा ज्ञान और कम हैं। मैं केवल एक गाथा जानता हूं। मैं पढ़ूंगा और उसका अर्थ भी समझाऊंगा। तुम ध्यान से सुन कर उसके अर्थ को धारण करों।
17. तब सभी भिक्षुणियों ने उल्टे क्रम से उस गाथा को कहने का प्रयास किया। लेकिन यह क्या! उनका मुंह ही नहीं खुल सका। वे लज्जा से मर गई। उन्होंने अपने सिर नीचे लटका लिये।
18. तब भगवान बुद्ध से प्राप्त शिक्षण के अनुसार वृद्ध पटिसेन ने उस गाथा को दोहरा कर उसकी व्याख्या करनी शुरू की।
19. उसका प्रवचन सुनकर सब भिक्षुणियों को आश्चर्य हुआ। उस उपदेश को सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुई। उन्होंने उसे सिर-माथे स्वीकार किया। वे अर्हत हो गई।
20. इसके अगले दिन राजा प्रसेनजीत ने बुद्ध प्रमुख भिक्षु संघ हो अपने यहां भोजन के लिए निमंत्रित किया।
21. बुद्ध ने पटिसेन की विशेष उन्नत स्थिति पहचान, उसे अपना भिक्षापात्र लेकर साथ चलने के लिए कहा।
22. लेकिन जब वे राज-महल के द्वार पर पहुंचे, तो उस द्वारपाल ने जो उससे पूर्व परिचित था, वृद्ध पटिसेन को अन्दर नहीं जाने दिया। बोला-- जो भिक्षु केवल एक गाथा जानता हैं, हमें उसका आतिथ्य नहीं करना हैं। तुम्हारे जैसे सामान्यों के लिए स्थान नहीं हैं। अपने से श्रेष्ठत्तर लोगों को रास्ता दे। और स्वयं चल दो।
23. तदनुसार पटिसेन दरवाजे के बाहर ही बैठ गए।
24. अब बुद्ध आसन पर विराजमान हुए। उन्होंने हाथ धोया। लेकिन यह क्या! भिक्षा पात्र लिए हुए पटिसेन हाथ वहां उपस्थित था।
25. राजा, मंत्रियों और अन्य उपस्थित जनों ने जब यह देखा तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। वे बोले-- 'ओह! यह कौन हैं?'
26. तथागत ने उत्तर दिया-- यह भिक्षु पटिसेन हैं। इसने अभी बोधि प्राप्त की हैं। मैंने इसे अपना भिक्षा पात्र लेकर पीछे पीछे आने के लिए कहा था, किंतु द्वारपाल ने उसे नहीं आने दिया।
27. तब पटिसेन को भी प्रवेश मिला और वह भी संघ में आ सम्मिलित हुआ।
28. तब राजा प्रसेनजीत ने बुद्ध से पूछा-- मैं सुनता हूं कि इस पटिसेन की कुछ योगिता नहीं। यह केवल एक ही गाथा जानता हैं। तो उसे बोधि कैसे प्राप्त हो गई?
29. तथागत ने उत्तर दिया- ज्ञान अधिक न भी हो, शील मुख्य वस्तु हैं।
30. इस पटिसेन ने इस एक गाथा के मर्म को अच्छी तरह हृदयङ्गम कर लिया हैं। इसका शरीर, वाणी और विचार पूर्ण रूप से शांत हो गए हैं। यदि किसी आदमी के पास ज्ञान अधिक भी हो, किंतु यदि उसका आचरण तद्नुसार नहीं हैं, तो फिर यह सारा ज्ञान उस आदमी को विनाशोन्मुख होने से नहीं बचा सकता।
31. इसके बाद तथागत ने कहा--
32. चाहे कोई आदमी एक हजार गाथाओं का वाचन करें, लेकिन यदि वह गाथाओं के अर्थ से अपरिचित हैं, तो उसका वह वाचन किसी भी एक गाथा के वाचन के समान नहीं जिसे सुनकर चित्त शांति को प्राप्त हो। बिना समझे हजारों शब्दों के उच्चारण का भी क्या प्रयोजन? लेकिन एक शब्द का सुनना, समझना और तद्नुसार आचरण करना मोक्ष-लाभ का कारण हो सकता हैं।
33. एक आदमी अनेक ग्रंथों का वाचन कर सकता हैं, लेकिन यदि वह उन्हें समझाता नहीं तो उसका वाचन निष्प्रयोजन हैं। धम्म के एक ही पद को जानना और तद्नुसार चलना मोक्ष का मार्ग हैं।
32. इन शब्दों को सुनकर उपस्थित दो सौ भिक्षु, राजा तथा उसके मन्त्रीगण सभी प्रमुदित हुए।
8) 'धर्म' की पुस्तकों को गलती की संभावना से परे मानना अ-धम्म है - Gautam Buddha 8 Updesh
1. ब्राह्मणों की घोषणा थी कि वेद न केवल पवित्र ग्रंथ ही हैं, बल्कि वे स्वत: प्रमाण हैं।
2. ब्राह्मणों ने वेदों के स्वत: प्रमाण होने की घोषणा नहीं की, बल्कि उन्होंने वेदों को गलती की संभावना से परे माना।
3. इस विषय में भगवान बुद्ध ब्राह्मणों से सर्वथा विरोधी मत रखते थे।
4. उन्होंने वेदों को पवित्र नहीं माना। उन्होंने वेदों को स्वत: प्रमाण नहीं माना। उन्होंने वेदों को गलती की संभावना से परे नहीं माना।
5. उनके समकालीन कई दूसरे धम्मोपदेशक का भी यही मत था। लेकिन, बाद में या तो उन्होंने अथवा उनके अनुयायियों ने अपने अपने मत को ब्राह्मणों की दृष्टि में आदृत बनाने के लिए, अपना बुद्धि वादी पक्ष छोड़ दिया। लेकिन भगवान बुद्ध ने इस विषय में कभी समझौता नहीं किया।
6. तेविज्ज सुत्त में भगवान बुद्ध ने वेदों को जल-विहील कान्तार कहा है, पथविहिन जंगल कहा है, वास्तव में विनाश-पथ। कोई भी आदमी जिसमें कुछ बौद्धिक तथा नैतिक प्यास है, वह वेदों के पास जाकर अपनी प्यास नहीं बुझा सकता।
7. जहां तक वेदों को गलत होने की संभावना से परे होने की बात है, तथागत ने कहा, कोई ऐसी चीजें हो ही नहीं सकती जो गलत होने की संभावना से सर्वथा परे हों- वेद भी नहीं। इसलिए भगवान बुद्ध ने कहा कि हर चीज का परीक्षण और पूर्नपरीक्षण होते रहना चाहिए।
8. यह बात उन्होंने कालाम लोगों को दिए गए अपने प्रवचन में स्पष्ट की हैं।
9. एक बार भिक्षु संघ सहित चारिका करते करते भगवान बुद्ध कोसल जनपद के केस पुत्तिय नगर में आ पहुंचे। वह नगर कालाम नगर नामक क्षत्रियों की बस्ती थी।
10. जब कालाम नामक क्षत्रियों को तथागत के आगमन की सूचना मिली। वे वहां पहुंचे जहां तथागत विहार कर रहे थे और जाकर एक और बैठ गए एक और बैठे हुए कालाम क्षत्रियों ने भगवान बुद्ध को इस प्रकार संबोधित किया--
11. हे श्रमण गौतम! हमारे गांव में कुछ श्रमण-ब्राह्मण आते है, वे अपने मत की स्थापना करते हैं, अपने मत को ऊंचा उठाते हैं और दूसरे के मत का खण्ड़न करते हैं, दूसरे के मत को नीचा दिखाते हैं। इसी प्रकार कुछ दूसरे श्रमण ब्राह्मण आते हैं, वे भी अपने मत की स्थापना करते हैं और अपने मत को ऊंचा उठाते हैं और दूसरे के मत का खण्ड़न करते हैं, दूसरे के मत को नीचा दिखाते हैं।
12. इसलिए हे श्रमण गौतम! हम संदेह में पड़ जाते हैं कि इन श्रमण ब्राह्मणों में कौन सत्य बोल रहा है और कौन झूठ?
13. हे कालामो! तुम्हे योग्य विषय में संदेह उत्पन्न हुआ है; तुम्हारे मन में योग्य विषय में शक उत्पन्न हुआ हैं।
14. हे कालामो, तथागत ने कथन जारी रखा, किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि वह तुम्हारे सुनने में आई हैं; किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि वह परंपरा से प्राप्त हुई हैं; किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि बहुत से लोग उसके समर्थक हैं; किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि वह (धर्म) ग्रंथों में लिखी हैं; किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि वह तर्क (शास्त्र) के अनुसार हैं; किसी बात को केवल इसलिए मत मानो की ऊपरी तौर पर वह मान्य प्रतीत होती हैं; किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि अनुकूल-विश्वास वा अनुकूल-दृष्टि की हैं; किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि ऊपरी तौर पर सच्च प्रतीत होती हैं; किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि वह किसी आदरणीय आचार्य की कही हुई हैं।
15. तो फिर हमें क्या करना चाहिए? हमारी क्या कसौटी होनी चाहिए थी? कालाम क्षत्रियों ने प्रश्न किया।
16. तथागत बोले-- कालामों! कसौटी यही है कि स्वयं अपने से प्रश्न करो कि क्या अमुक बात का करना हितकर हैं? क्या अमुक बात निंदनीय हैं? क्या अमुक बात विज्ञ जनों द्वारा निषिद्ध हैं? क्या अमुक बात के करने से कष्ट और दुःख होता है?
17. कालामों! इतना ही नहीं, तुम्हें यह भी देखना चाहिए कि क्या मत-मत विशेष, तृष्णा, घृणा, मूढता और द्वेष की भावना की वृद्धि में तो सहायक नहीं होता?
18. कालामों! इतना ही नहीं, तुम्हें यह भी देखना चाहिए कि मत विशेष किसी को उसकी अपनी इंद्रियों का गुलाम तो नहीं बनाता? उसे हिंसा करने में प्रवृत्त तो नहीं करता? उसे चोरी करने की प्रेरणा तो नहीं देता? उसे कामभोग संबंधी मिथ्याचार में प्रवृत्त तो नहीं करता? उसे झूठ बोलने में प्रवृत्त तो नहीं करता? उसे दूसरों को वैसा ही करने की प्रेरणा देने में तो प्रवृत्त नहीं करता?
19. और हे कालामों! अंत में तुम यही पूछना चाहिए कि यह दुःख के लिए, अहित के लिए तो नहीं हैं?
20. हे कालामों! अब तुम क्या सोचते हो?
21. इन बातों के करने में आदमी का अहित हैं वह हित है?
22. भन्ते! अहित हैं।
23. हे कालामों! क्या ये बातें लाभप्रद है वह हानि-प्रद?
24. भन्ते! हानि प्रद हैं?
25. क्या ये बातें निंदनीय है?
26. भन्ते! निंदनीय है।
27. विज्ञ पुरुषों द्वारा विषिद्ध हैं वा समर्पित हैं?
28. विज्ञ पुरुषों द्वारा निषिद्ध।
29. इनके करने से कष्ट और दुःख होता है?
30. भन्ते! इनके करने से कष्ट और दुःख होता है।
31. कोई धर्म-ग्रंथ जो यह सब सिखाता हो, क्या वह स्वत: प्रमाण माना जा सकता हैं? क्या वह गलत होने की संभावना से परे माना जा सकता हैं?
32. भन्ते! नहीं।
33. लेकिन कालामों! यही तो मैंने कहा है। मैंने कहा है किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि वह तुम्हारे सुनने में आई हैं; किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि वह परंपरा से प्राप्त हुई हैं; किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि वह बहुत से लोग उसके समर्थक है; किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि वह (धर्म) ग्रंथों मे लिखी हैं; किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि वह तर्क (शास्त्र) के अनुसार हैं; किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि वह न्याय (शास्त्र) के अनुसार है, किसी बात को केवल इसलिए मत मानो की ऊपरी तौर पर वह मान्य प्रतीत होती हैं; किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि वह अनुकूल-विश्वास वा अनुकूल-दृष्टि की हैं; किसी बात केवल इसलिए मत मानो कि ऊपरी तौर पर सच्ची प्रतीत होती हैं; किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि वह किसी आदरणीय आचार्य की कही हुई हैं।
34. केवल जब तुम आत्मानुभव से ही यह जानो कि ये बातें अहितकर हैं, ये बातें ही निंदनीय हैं, ये बातें विज्ञ पुरुषों द्वारा निषिद्ध है, ये बातें करने से कष्ट होता है, दुःख होता है-- हे कालामों! तब तुम्हें उनका त्याग कर देना चाहिए।
35. भन्ते! अद्भुत है। गौतम! अद्भुत हैं। हम आपकी आपके धम्म की और संघ की शरण ग्रहण करते हैं। आज से प्राण रहने तक भगवान हमें अपना शरणागत उपासक जानें।
36. इस दलील का सार स्पष्ट हैं। किसी आदमी की शिक्षा को प्रमाणित स्वीकार करते समय इस बात का विचार मत करो कि वह किसी (धर्म) ग्रंथ में लिखी हुई, इस बात का विचार मत करो कि वह तर्क (धर्म) ग्रंथ में लिखी हुई हैं, इस बात का विचार मत करो कि वह अनुकूल-विश्वास वा अनुकूल-दृष्टि की है, इस बात का विचार मत करो कि वह ऊपरी दृष्टि से सच्ची प्रतीत होती है तथा इस बात का विचार न करो कि वह किसी आदरणीय आचार्य की कही हुई प्रतीत होती हैं।
37. लेकिन इस बात का विचार करो कि जिन मतों को या जिस दृष्टि को तुम स्वीकार करना चाहते हो वे हितकर है वा नहीं, निंदनीय है वा नहीं, कष्टप्रद तथा हानि-प्रद हैं वा नहीं?
38. केवल एक इसी आधार पर कोई किसी दूसरे की दी हुई शिक्षा को स्वीकार या अस्वीकार कर सकता हैं।