
Buddhism and Hinduism | Gautam Buddha Story in Hindi
1) बुद्ध और वैदिक ऋषि
1. वेद, मंत्रों अर्थात ऋचाओं या स्तुतियों का संग्रह है। इन ऋचाओं का उच्चारण करने वालों को ऋषि कहते हैं।
2. मंत्र देवताओं को संबोधन करके की गई प्रार्थनाओं के अतिरिक्त कुछ नहीं है जैसे, इंद्र, वरुण, अग्नि, सोम, ईशान, प्रजापति, ब्रह्म, महद्धिं एवं तथा अन्य।
3. प्रार्थनायें प्रायः शत्रुओं से रक्षा वा शत्रुओं के विरुद्ध सहायता प्राप्त करने के लिए है, धन प्राप्ति के लिए हैं, भक्तों से भजन, मांस और सूरा की भेट स्वीकार करने के लिए है।
4. वेदों में दर्शन की मात्रा कुछ विशेष नहीं है। लेकिन कुछ वैदिक ऋषियों के गीत हैं जिनमें कुछ दार्शनिक ढंग से काल्पनिक उड़ान दिखाई देती है।
5. इन वैदिक ऋषियों के नाम हैं: 1) अघमर्षण, 2) प्रजापति परमेष्ठी, 3) ब्राह्मणस्पति व बृहस्पति, 4) अनिल, 5) दीर्घतमा, 6) नारायण, 7) हिरण्यगर्भ तथा 8) विश्वकर्मा.
6. इन वैदिक दार्शनिकों के मुख्य समस्याएं थी यह संसार कैसे उत्पन्न हुआ? अलग-अलग चीजें कैसे उत्पन्न की गई? उनकी एकता और अस्तित्व क्यों है? किसने उत्पन्न की और किसने व्यवस्था की? यह संसार किस में से उत्पन्न हुआ और फिर किस में विलीन हो जाएगा?
7. अघमर्षण का कथन था कि संसार की उत्पत्ति तपस (ताप) से हुई है। तपस ही वह नित्य तत्व है जिससे नित्य धर्म और ऋत (सत्य) की उत्पत्ति हुई है। इन्हीं से तम (अंधकार, रात्रि) की उत्पत्ति है। तम से जल की उत्पत्ति हुई और जल से काल की। काल से ही सूर्य तथा चंद्रमा पैदा हुए तथा द्यौ और पृथ्वी ने जन्म धारण किया। काल ने ही अंतरिक्ष को प्रकाश को जन्म दिया तथा रात और दिन की व्यवस्था की।
8. ब्राह्मणस्पति की कल्पना थी की सृष्टि असत से सत रूप में आई। असत से कदाचित उसका आशय अनंत से था। सत मूल रूप से असत से उत्पन्न हुआ। समस्त सत का मूलाधार असत ही था और उस समस्त भावी सत का तो इस समय असत है।
9. प्रजापति परमेष्ठि ने जिस समस्या को उठाया वह थी कि क्या सत की उत्पत्ति असत से हुई?
उसका मत था कि इस प्रश्न का प्रस्तुत विषय से कोई संबंध नहीं। उसके मत के अनुसार समस्त जगत का मूलाधार जल है। उसकी दृष्टि से जो जगत का मूलाधार- जल है वह न सत के अंतर्गत आता है और न असत्य के।
10. परमेष्ठी ने जड़तत्व और चेतन को लेकर कोई विभाजक रेखा नहीं खींची। उसके मत के अनुसार किसी निहित तत्व के ही कारण जल भिन्न-भिन्न वस्तुओं का आकार ग्रहण करता है। उसने इस निहित-तत्व को काम कहा है-- विश्व-व्यापी-इच्छा-शक्ति।
11. एक दूसरे वैदिक दार्शनिक का नाम था अनिल। उसके लिए वायु ही मुख्य तत्त्व था। इसमें चलन अंतर्निहित था। उसी में उत्पन्न करने की शक्ति है।
12. दीर्घतमा का मत था कि अंत में सभी चीजों का मूलाधार सूर्य है। सूर्य अपनी अंतनिर्मित शक्ति से ही आगे पीछे सरकता है।
13. सूर्य किसी भूरी शक्ल के पदार्थ से निर्मित है और वैसे ही विद्युत तथा अग्नि।
14. सूर्य, विद्युत और अग्नि में जल का बीजापुर विद्यमान है और जल पौधों का वीजाङ्कुर है। ऐसा ही कुछ दीर्घातमा का मत था।
15. नारायण के मत के अनुसार पुरुष ही जगत का आदि कारण है। पुरुष से ही सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, अंतरिक्ष, आकाश, क्षेत्र, ऋतु, वायु के जीव, सभी प्राणी, सभी वर्गों के मनुष्य तथा सभी मानवीय संस्थान उत्पन्न हुए हैं।
16. हिरण्यगर्भ सिद्धांत की दृष्टि से हिरण्यगर्भ परमेष्ठी और नारायण के बीच में था। हिरण्यगर्भ का मतलब है स्वर्ण-गर्भ यही विश्व है कि वह महान शक्ति थी, जिसे तमाम दूसरी पार्थिव तथा दिव्य शक्तियों तथा अस्थित्व का मूल स्रोत माना जाता था।
17. हिरण्यगर्भ का अर्थ अग्नि भी है। यह अग्नि ही है जो सौर मण्ड़ल का उपादान-कारण है, विश्व की उत्पादक शक्ति।
18. विश्वकर्मा की दृष्टि से यह मानना कि जल ही हर वस्तु के मूल में है और जल ही से समस्त संसार की उत्पत्ति हुई है ऐसा समझना और यह समझना कि संचरण उसका स्वभाव-धर्म ही है, योग्य नहीं था। यदि हम जल को ही मूल अपादान मानें तो पहले हमें यह बताना होगा कि जल की उत्पत्ति कैसे हुई और जल में वह शक्ति, यह उत्पादक-शक्ति कहां से आई और पृथ्वी, आप, तेज, आदि की यह शक्तियां, अन्य नियम और शेष सब कुछ कैसे अस्तित्व में आयें?
19. विश्वकर्मा का कहना था कि पुरुष ही है जो सब किसी का मूलाधार है। पुरुष आदि में है, पुरुष अंत में है। वह इस दृश्य संसार के पहले से है, इन सभी विश्व शक्तियों के अस्तित्व में आने से भी पहले उसका अस्तित्व है। अकेले पुरुष द्वारा है यह विश्व उत्पन्न है और संचलित है। पुरुष एक और केवल एक है। वह अज है और उसीमें सभी उत्पन्न चीजों का निवास है। वही है जिसका चेतस भी महान है और सामर्थ्य भी महान है। वही उत्पन्न करने वाला है, वही विनाश करने वाला है। पिता की हैसियत से उसने हमें उत्पन्न किया और यमराज की तरह हुआ हम सब के अंत से परिचित हैं।
20. बुद्ध सभी वैदिक ऋषियों को आदरणीय नहीं मानते थे। वह उनमें से कोई 10 ही ऋषियों को सर्वाधिक प्राचीन तथा मंत्र रचयिता मानते थे।
21. लेकिन उन मंत्रों में उन्हें ऐसा कुछ नहीं दिखाई दिया जो मानव के नैतिक उत्थान में सहायक हो सके।
22. बुद्ध कि दृष्टि में वेद बालू के कान्तार के समान निष्प्रयोजन थे।
23. इसलिए बुद्ध ने वेदों को इस योग्य नहीं समझा कि उनमें कुछ सीखा जा सके वा ग्रहण भी किया जा सके।
24. इसी प्रकार बुद्ध को वैदिक ऋषियों के दर्शन में भी कुछ सार नहीं दिखाई देता था। निःसंदेह है उन्हें (ऋषियों को) सत्य की खोज थी। वे उसे अंधेरे में टटोल रहे थे। किंतु उन्हें सत्य मिला न था।
25. उनके सिद्धांत केवल मानसिक उड़ाने थी, जिनके तर्क या यथार्थ बातों से कोई संबंध न था। दर्शन के क्षेत्र में उन्होंने किसी नये सामाजिक-चिंतन की देन नहीं दी।
26. इसलिए उसने वैदिक ऋषियों के दर्शन को बेकार जान उसकी संपूर्ण रूप से अवहेलना की।
2) कपिल-दार्शनिक
1. प्राचीन भारतीय दार्शनिकों में कपिल सर्वाधिक प्रधान है।
2. उसका दार्शनिक दृष्टिकोण अनुपम था। वह एक अकेला दार्शनिक नहीं था, वह अपने में मानों एक दार्शनिक वर्ग ही था।
3. उसका दर्शन सांख्य-दर्शन कहा जाता था।
4. सत्य के लिए प्रमाण आवश्यक है। सांख्य का यह प्रथम सिद्धांत है। बिना प्रमाण के सत्य का अस्तित्व नहीं।
5. सत्य को सिद्ध करने के लिए कपिल ने केवल दो प्रमाण स्वीकार किये - 1) प्रत्यक्ष और अनुमान
6. प्रत्यक्ष से मतलब है (इंद्रियों के माध्यम से) विद्यमान वस्तु की चित्त को जानकारी।
7. अनुमान तीन प्रकार का है- 1) कारण से कार्य का अनुमान, जैसे बादलों के अस्तित्व से वर्षा का अनुमान लगाया जा सकता है;
2) कार्य से कारण का अनुमान, जैसे यदि नीचे नदी में बाढ़ दिखाई दे तो हम ऊपर पहाड़ पर वर्षा होने का अनुमान लगा सकते हैं,
3) सामान्यतो दृष्ट हनुमान जैसे हम आदमी के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने से यह समझते हैं कि वह स्थान-परिवर्तन करता है, उसी प्रकार हम तारों को भी भिन्न-भिन्न जगहों पर देखकर यह अनुमान लगाते हैं कि वे भी स्थान परिवर्तित होते हैं।
8. उसका अगला सिद्धांत सृष्टि की उत्पत्ति से संबंध में था। सृष्टि की उत्पत्ति और उसका कारण।
9. कपिल को किसी सृष्टिकर्ता का अस्तित्व स्वीकार न था। उसका मत था कि उत्पन्न वस्तु पहले से ही अपने कारण में विद्यमान रहती है जैसे मिट्टी से बर्तन बनता है अथवा धागों से एक कपड़े का टुकड़ा बनता है।
10. यह एक तर्क था जिसकी वजह से कपिल को किसी सृष्टिकर्ता का अस्तित्व मान्य न था।
11. उसने अपने मत के समर्थन में और भी तर्क दिए हैं।
12. असत कभी किसी कार्य का कारण है नहीं हो सकता। वास्तव में नई उत्पत्ति कुछ होती ही नहीं। वस्तु उस सामग्री के अतिरिक्त और कुछ नहीं है जिससे उसका निर्माण होता है। किसी एक निश्चित सामग्री से किसी एक निश्चित वस्तु का निर्माण हो सकता है। और केवल एक निश्चित सामग्री ही किसी निश्चित वस्तु के रूप में परिणति को प्राप्त हो सकती है।
13. तो इस वास्तविक संसार का मूल स्रोत क्या है?
14. कपिल का कहना था कि वास्तविक संसार के दो रूप हैं---
1.व्यक्त (विकसित) तथा अव्यक्त और (अविकसित)
15. व्यक्ति वस्तु अव्यक्त वस्तुओं का स्रोत नहीं हो सकती।
16. व्यक्त वस्तुएं ससीम होती हैं और यह सृष्टि के मूल स्रोत बमेल हैं।
17. तमाम व्यक्त वस्तुएं परस्पर समान होती है। इसलिए कोई भी एक व्यक्त वस्तु किसी दूसरी व्यक्त वस्तु का स्रोत नहीं मानी जा सकती। और फिर क्योंकि वे स्वयं किसी एक ही मूल स्रोत से उत्पन्न होती है, इसलिए वे स्वयं हुआ मूल स्रोत नहीं हो सकती।
18. कपिल का दूसरा तर्क था कि एक कार्य को अपने कारण से भिन्न होना ही चाहिए। यद्यपि उस कार्य में कारण निहित रहता ही है। जब यह ऐसा है तो विश्व स्वयं ही अंतिम कारण नहीं हो सकता। इसे किसी अंतिम कारण का परिणाम होना चाहिए।
19. जब पूछा गया कि अव्यक्त की अनुभूति क्यों नहीं होती, इसकी कोई भी क्रिया इंद्रिय-गोचर क्यों नहीं होती, तो कपिल का उत्तर था--
20. यह अनेक कारणों से हो सकता है। हो सकता है कि अनेक दूसरी अतिसूक्ष्म वस्तुओं की तरह जिन की सीधी अनुभूति नहीं होती, इसकी भी अनुभूति न होती हो; अथवा अत्याधिक दूरी के कारण अनुभूति न होती हो; अथवा अनुभूति में कोई एक तीसरी वस्तु बाधक हो; अथवा किसी का तादृश वस्तु की मिलावट हो; अथवा किसी तीव्रतर वेदना (अनुभूति) के कारण अनुभूति न होती हो; अथवा अंधेपन या किसी अन्य इंद्रिय दोष के कारण अनुभूति न होती हो अथवा द्रष्टा के मस्तिष्क की विकलता के ही कारण अनुभूति न होती हो।
21. जब पूछा गया तो विश्व का मूल स्रोत क्या है? विश्व के व्यक्त रूप तथा अव्यक्त रूप में क्या अंतर है?
22. कपिल का उत्तर था- व्यक्त रूप का भी कारण होता है तथा अव्यक्त रूप का भी कारण होता है।लेकिन दोनों के मूल स्रोत स्वतंत्र हैं और उनका कोई कारण नहीं।
23. व्यक्त वस्तुओं की संख्या अनेक हैं। वे देश काल से सीमित हैं। उनका स्रोत एक ही है, वह नित्य है और सर्व व्यापक है। व्यक्त वस्तुएं क्रियाशील होती हैं, उनके अंग व हिस्से होते हैं। सब का मूल स्रोत सटा ही रहता है, लेकिन वह क्रियाशील होता है और न उसके अंग व हिस्से होते हैं।
24. कपिल का तर्क था कि अव्यक्त कि व्यक्ति में परिणित उन तीन गुणों की क्रियाशीलता का परिणाम है जिन से उसका निर्माण हुआ है। वे तीन गुण हैं, सत्व, रज, तम।
25. इन तीनों गुणों में प्रथम अर्थात व प्रकृति में प्रकाश के समान है जो प्रकट करता है, जो मनुष्यों को सुख देता हैं; दूसरा गुण रज है जो प्रेरित करता है, जो संचलित करता है, जो क्रियाशीलता का कारण होता है, तीसरा गुण तम है जो भारीपन का घोतक है, जो रोकता है, जो अपेक्षा वा निष्क्रियता को उत्पन्न करता है।
26. तीनों गुण परस्पर संबुद्ध होकर ही क्रियाशील होते है। वे एक दूसरे पर हावी हो जाते हैं। वे एक दूसरे के सहायक होते हैं। वे एक दूसरे से मिले रहते हैं। जिस प्रकार लौ, तेल और बत्ती के परस्पर सहयोग से ही दीपक जलता है, उसी प्रकार यह तीनों गुण भी मिलकर ही क्रियाशील होते हैं।
27. जब तीनों गुण एकदम बराबर मात्रा में होते हैं, कोई भी एक गुण दूसरे पर हावी नहीं होता, उस समय यह विश्व अचेतन प्रतीत होता है, उसमें विकास नहीं होता।
28. जब तीनों गुण एकदम बराबर मात्रा में नहीं होते, एक गुण दूसरे पर हावी हो जाता है, तब विश्व सचेतन हो जाता है, उसमें विकास होना आरंभ हो जाता है।
29. यह पूछे जाने पर कि गुणों की मात्रा में कमी-बेशी क्यों हो जाती है, कपिल का उत्तर था कि उसका कारण दुःख है।
30.कपिल के दर्शन सिद्धांत कुछ-कुछ ऐसे ही थे।
31.अन्य सभी दार्शनिकों की अपेक्षा बुद्ध कपिल के सिद्धांतों से ही विशेष रूप से प्रभावित थे।
32. कपिल ही एक ऐसा दार्शनिक था जिसकी शिक्षायें बुद्ध को तर्कसंगत और कुछ-कुछ यथार्थता पर आश्रित जान पड़ी।
33. लेकिन बुद्ध ने कपिल की सभी शिक्षाओं को स्वीकार नहीं किया। कपिल कि उन्हें केवल तीन ही बातें ग्राह्य थी।
34. उन्हें यह बात मान्य थी कि सत्त्य प्रमाणाश्रित होना चाहिए। यथार्थता का आधार बुद्धिवाद होना चाहिए।
35. उन्हें यह बात मान्य थी कि किसी ईश्वर के अस्तित्व हुआ उसके सृष्टिकर्ता होने का कोई तर्कानुकूल वा यथार्थताश्रित कारण विद्यमान नहीं है।
36. उन्हें यह बात मान्य थी कि संसार में दुःख है।
37. कपिल की शेष शिक्षाओं की उन्होंने उपेक्षा की क्योंकि उनका उनके लिए कोई उपयोग न था।
3) ब्राह्मण - ग्रन्थ
1. वेदों के बाद उस धार्मिक साहित्य का नंबर आता है जो ब्राह्मण-ग्रंथों के नाम से प्रसिद्ध है। दोनों ही पवित्र ग्रंथ माने जाते थे। वास्तव में ब्राह्मण भी वेदों का एक भाग ही है। दोनों साथ-साथ हैं और दोनों का एक सम्मिलित नाम श्रुति है।
2. ब्राह्मण के दर्शन के चार अवस्था में स्तंभ है।Buddhism and Hinduism
3. सब से पहला स्तंभ है की वेद न केवल पवित्र है, बल्कि अपौरुषेय हैं? उनके किसी एक भी शब्द पर प्रश्न-चिन्ह नहीं लग सकता।
4. ब्राह्मणी-दर्शन का दूसरा स्तंभ वा दूसरी आधार-शिला थी आत्मा की मुक्ति जन्म-मरण के संबंध से वा संसरण से मुक्ति वैदिक यज्ञों तथा दूसरी धार्मिक क्रियाओं के उचित ढंग से पूरा करने और ब्राह्मणों को दान देने से ही हो सकती है।
5. ब्राह्मणों के पास न केवल एक आदर्श-धर्म की ही कल्पना थी, बल्कि उन्होंने अपनी एक आदर्श-समाज की कल्पना भी गढ रखी थी।
6. इस आदर्श-समाज के ढांचे का उनका अपना नाम था चातुवर्ण। यहां वेदों में जुड़ा हुआ है, और क्योंकि वेद तर्कातीत है और क्योंकि वेदों के किसी भी शब्द पर प्रश्नचिन्ह लग ही नहीं सकता, इसलिए एक आदर्श समाज के नमूने के रूप में चातुर्वर्ण भी तर्कातीत है और उस पर भी उंगली नहीं उठाई जा सकती।
7. समाज के एक नमूने के कुछ आधार-भूत नियम है।
8. पहला नियम था कि समाज चार भागों में विभक्त होना चाहिए।
1)ब्राह्मण; 2)क्षत्रिय; 3)वैश्य; और 4)शूद्र
9. दूसरा नियम था कि इन चारों वर्गो में सामाजिक समानता नहीं हो सकती। इन सबको क्रमिक असमानता के नियम से परस्पर बड़ा रहना होगा।
10. ब्राह्मण सर्वोपरि। ब्राह्मण के नीचे क्षत्रिय, किंतु वैश्यों से ऊपर। क्षत्रियों के नीचे वैश्य किंतु शुद्रों से ऊपर। सब के नीचे शुद्र।
11. यह चारों वर्ग अधिकार और विशेष सुविधाओं के मामले में एक दूसरे से समानता का दावा नहीं कर सकते थे। अधिकारों और विशेष सुविधाओं का उपयोग क्रमिक असमानता के नियम के अनुसार ही हो सकता था।
12. ब्राह्मण को वह सभी अधिकार और विशेष सुविधाएं प्राप्त थी, जिन की वह इच्छा कर सकता था। लेकिन एक क्षत्रिय उन्हीं अधिकारों और विशेष सुविधाओं की मांग नहीं कर सकता था। जो एक ब्राह्मण को प्राप्त थी। एक वैश्य की अपेक्षा उसे अधिक अधिकार और विशेष सुविधाएं प्राप्त थी। वैश्य को एक शूद्र की अपेक्षा अधिक अधिकार और सुविधाएं प्राप्त थी। लेकिन वह उन्हीं अधिकारों और विशेष सुविधाओं की मांग नहीं कर सकता था जो एक क्षत्रिय को प्राप्त थी और जहां तक शूद्र की बात है, उसे किसी विशेष सुविधा का तो कहना ही क्या कोई अधिकार ही नहीं प्राप्त था। उसके लिए यही बहुत था कि वह ऊपर के तीन वर्गों को बिना रोस्ट किए किसी ना किसी तरह जीता रह सके।
13. चातुर्वर्ण्य के तीसरे नियम का सम्बन्ध पेशों वा जीविका के साधनों से था ब्रह्माण का पेशा था पढ़ना, पढ़ाना और धार्मिक-सस्कार कराना। क्षत्रिय का पेशा था लड़ना, मरना-मारना। वैश्य का पेशा था व्यापार। शूद्र का पेशा था ऊपर के तीनों वर्गो की सेवा करना। इन चारों वर्गो का यह विभाजन ऐसा न था कि एक वर्ग किसी दूसरे का कर सके। हर वर्ग केवल अपना अपना ही पेशा कर सकता था। कोई भी एक वर्ग किसी दूसरे के पेशे में दखल न दे सकता था।
14. चातुर्वर्ण्य का चौथा नियम शिक्षा के अधिकार से संबंधित था। चातुर्वर्ण्य के नमूने के अनुसार केवल पहले तीन वर्ग- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य-- शिक्षा के अधिकारी थे। शूद्रो के लिए शिक्षित होना निषिद्ध था। इस चातुर्वर्ण्य के नियम के केवल शूद्रों कहीं शिक्षित होने को वर्जित नहीं किया था, बल्कि सभी स्त्रियों के शिक्षित होने को वर्जित किया था, जिनमें ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों तथा शूद्रों की भी स्त्रियां शामिल थी।
15. एक पांचवां नियम भी था। इसके अनुसार आदमी के जीवन के चार हिस्से किए गए थे। पहले अवस्था ब्रह्मचय्र्याश्रम थी, दूसरी अवस्था गृहस्थाश्रम कहलाती थी, तीसरी वानप्रस्थाश्रम और चौथी सन्यासाश्रम।
16. प्रथम आश्रम का उद्देश्य था अध्ययन और शिक्षा। दूसरे आश्रम का उद्देश्य था वैवाहिक जीवन व्यतीत करना। तीसरे आश्रम का उद्देश्य था आदमी को वन-वासी जीवन से परिचित कराना- बिना गृह त्याग किए परिवारिक बंधनों से मुक्त हो जाना। चौथे आश्रम का उद्देश्य था ईश्वर की खोज और उस से मिलने का प्रयास।
17. इन आश्रमों से तीनों ऊंचे वर्गों के पुरुष मात्र लाभान्वित हो सकते थे। शूद्रों और स्त्रियों के लिए पहला आश्रम वर्जित था। इसी प्रकार शूद्रों और स्त्रियों के लिए अंतिम आश्रम भी वर्जित था।
18. पैसा था यह दिव्य आदर्श समाज का नमूना जिसे चातुर्वर्ण्य का नाम दिया गया था। ब्राह्मणों ने इस नियम को ऊंचे आदर्श वाद में परिमाण कर दिया था और इस बात की पूरी सावधानी रखी थी कि इसमें कहीं कोई कोर-कसर न बाकी रह जाय।
19. ब्राह्मणी-दर्शन का एक चौथा स्तंभ था कर्म का सिद्धांत। यह आत्मा के संसरण के सिद्धांत का एक भाग था। ब्राह्मणों का कर्मवाद इस एक प्रश्न का उनकी ओर से दिया गया उत्तर था- जन्मांतर होने पर ने शरीर को लेकर आत्मा का नया जन्म ग्रहण करती है? ब्राह्मणी-दर्शन का उत्तर था कि यह उसके पिछले जन्म के कर्मों पर निर्भर करता है। दूसरे शब्दों में इसका यही मतलब है कि यह उसके कर्मों का परिणाम है।
20. ब्राह्मण - धर्म के प्रथम सिद्धांत के बुद्ध कड़े विरोधी थे। उन्होंने ब्राह्मणों के सिद्धांत का खण्ड़न किया कि वेद अपौरुषेय है और उन पर प्रश्नचिन्ह नहीं लग सकता।
21. उसकी समिति में कोई बात ऐसी हो ही नहीं सकती जो गलत होने की संभावना से परे हो। किसी भी विषय में कोई बात अंतिम हो ही नहीं सकती। यथावश्यकता समय-समय पर हर बात का परीक्षण हो सकना चाहिये।
22. आदमी को सत्य और यथार्थ सत्य जाना चाहिये। बुद्ध के लिए विचार स्वातंत्र सर्वाधिक महत्व की बात थी। और उन्हें इस बात का निश्चय था कि विचार-स्वातंत्र ही सत्य को प्राप्त करने का एकमात्र साधन है।
23. वेदों की अपौरुषेयता को मान लेने का मतलब था कि विचार- स्वातंत्र को सर्वधा और अस्वीकार कर देना।
24. इन्हीं कारणों से ब्राह्मणी-दर्शन कि उक्त स्थापना उन्हें सर्वाधिक अप्रिय थी।
25. बुद्ध को ब्राह्मणी दर्शन की दूसरी स्थापना भी उतनी ही अप्रिय थी। बुद्ध ने यह तो स्वीकार किया कि यज्ञ करना भी उचित है, किंतु उन्होंने सच्चे यज्ञ और झूठे यज्ञ करना भी उचित है, किंतु उन्होंने सच्चे यज्ञ और झूठे यज्ञ में विभाजक रेखा खींच दी।
26. दूसरों के कल्याण के लिए आत्मा परित्याग को ही बुद्ध ने सच्चा यज्ञ माना। आत्म स्वार्थ के लिए किसी देवता को प्रसन्न करने के उद्देश्य से किसी पशु की बलि देना बुद्ध ने झूठा यज्ञ बताया।
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27. अधिकांश ब्राह्मणी यज्ञ देवताओं को प्रसन्न करने के लिए दी जाने वाली पशुओं की बलियां ही थी। बुद्ध ने इन्हें झूठे यज्ञ कहकर इन की निंदा की। यज्ञ दी आत्मा के मोक्ष लाभ के लिए ही किए जाएं तो भी बुद्ध उसके करने के पक्ष में न थे।
28. यज्ञ विरोधी लोग यह कहकर ब्राह्मणों का उपहास किया करते थे, यदि कोई एक पशु की बलि देने से स्वर्ग जा सकता है, तो फिर से शीघ्रतर स्वर्ग जाने के लिए अपने पिता की ही बलिदान क्यों नहीं किया जाता?
29. बुद्ध इस मत से सर्वदा सहमत थे।
30.यज्ञ का सिद्धांत बुद्ध को जितना बुरा लगता था उतनी ही बुरी को यह चातुर्वर्ण्य की स्थापना लगती थी।
31. ब्राह्मणवाद ने चातुर्वर्ण्य के नाम से जिस प्रकार के समाज संगठन की कल्पना की, वह बुद्ध को सर्वथा अप्राकृतिक लगता था। इसका वर्गाश्रित स्वरूप अनिवार्य था और मनमाना था। यह किसी के हुक्म से रच दिये गये समाज के समान था। बुद्ध एक खुले और एक स्वातंत्र-समाज के पक्षपति थे।
32. ब्राह्मणवाद का चातुर्वर्ण्य एक जड़ समाज रचना थी, अपरिवर्तनशील। एक बार ब्राह्मण के घर में जन्म ले लिया हमेशा के लिए ब्राह्मण। एक बार क्षत्रिय के घर में जन्म ले लिया, हमेशा के लिए क्षत्रिय। एक बार वैश्य के घर में जन्म ले लिया, हमेशा के लिए वैश्य। एक बार शुद्र के घर में जन्म ले लिया, हमेशा के लिए शूद्र। समाज रचना का आधार व्यक्ति का वह पद था, वह दर्जा था जो उसे गृह-विशेष में जन्म ग्रहण कर लेने मात्र से प्राप्त था। कोई बड़े से बड़ा पास-कर्म भी उसे उसके दर्जे से गिरा न सकता था, इसी प्रकार कोई बड़े से बड़ा पुण्य-कर्म भी किसी को ऊपर न उठा सकता था। न गुण की ही कहीं पूजा थी और न विकास का ही कहीं गुंजाइश थी।
33. कोई भी समाज ऐसा नहीं है जिसमें असमानता न हो। लेकिन ब्राह्मणवाद की बात ही दूसरी है। ब्राह्मणवाद द्वारा जिस असमानता का के सिद्धांत का प्रचार किया गया है, वह उसका धार्मिक मान्य सिद्धांत है। यह समानता अपने आप यूं ही प्रतिष्ठित नहीं हो गई है। ब्राह्मणवाद समानता को मानता ही नहीं रहा। वास्तव में यह समानता के सिद्धांत का शत्रु है।
34. ब्राह्मणवाद केवल असमानता से ही संतुष्ट नहीं रहा। ब्राह्मणवाद का प्राण क्रमिक असमानता में ही बसा था।
35. समन्वय तथा मेलजोल की भावना की बजाय, बुद्ध ने सोचा कि यह क्रमिक असमानता एक तो नीचे, उसके ऊपर, उसके और ऊपर, सब के ऊपर के वर्गों में क्रमिक घृणा की भावना पैदा कर देगी, दूसरी और उसकी उसी तरह सब के ऊपर, उसके नीचे, उससे और नीचे तथा सब के नीचे के वर्ग में क्रमिक जुगुप्सा की भावना पैदा कर देगी और इससे समाज में स्थायी संघर्ष बना रह सकता है।
36. चारों वर्गों के पेशे भी निश्चित थे, चुनाव की स्वतंत्रता नहीं थी। इतना ही नहीं, यह पेशे कमोबेश सामर्थ्य या हुनर के हिसाब से निश्चित नहीं किये गये थे, बल्कि जन्म के हिसाब से।
37. चातुर्वर्ण्य के नियमों को ध्यान पूर्वक समझने बुझने से बुद्ध इस परिणाम पर पहुंचे कि ब्राह्मणवाद की सामाजिक व्यवस्था का दार्शनिक आधार यदि स्वार्थाश्रित नहीं था, तो गलत अवश्य था।
38. उन बुद्ध को स्पष्ट हो गया था कि इस व्यवस्था से सब के कल्याण की तो आशा की ही नहीं जा सकती, सबकी स्वार्थ पूर्ति भी नहीं हो सकती। निश्चय से जानबूझकर इसकी कल्पना ही इस ढ़ंग की की गई है कि बहुत से लोग चंद लोगों के स्वार्थों की पूर्ति में निरत रहे। इस व्यवस्था में आदमी को स्वयं अपने आप मानव प्रवर (-भु-सुर) बने हुए मानव की सेवा में झोंक दिया गया था।
39. इसका उद्देश्य कमजोरों को दबाना और उनका शोषण था और उनको सर्वथा गुलाम बनाये रखना।
40. बुद्ध ने सोचा कि जिस कर्मवाद की ब्राह्मणवाद में रचना की है वह भी विद्रोह की भावना को सर्वथा सोख जाने के लिए ही है। अपने दुख के लिए स्वयं आदमी ही जिम्मेदार है। विद्रोह करने से भी कष्ट दूर नहीं किया जा सकता। क्योंकि उसके पूर्व जन्म के कर्म में यह पहले ही निश्चित कर दिया गया है कि वह इस जन्म में दुखी रहेगा।
41. शुद्र और स्त्रियां जिनकी मानवता
को ब्राह्मणवाद ने बुरी तरह छिन्न-छिन्न कर दिया था-सर्वथा शक्तिहीन थी। वह इस पद्धति के विरुद्ध जरा फिर न उठा सकती थीं।
42. उन्हें ज्ञान प्राप्त करने तक का अधिकार न था। इस जबर्दस्ती के अज्ञान का ही यह दुष्परिणाम था कि वे यह कभी जान ही न सकते थे कि किसने उन्हें इस दुरवस्था तक पहुंचाया है? वे यह जान नहीं सकते थे कि ब्राह्मणवाद ने उनका सारा जीवन रस सोख लिया है। ब्राह्मणवाद के विरुद्ध विद्रोह कर उठने की बजाय वे ब्राह्मणवाद के भक्त और समर्थक बन गये।
43. स्वतंत्रता प्राप्ति के निमित्त शस्त्र उठाने का अधिकार आदमी का अंतिम अधिकार है। लेकिन शूद्रों से शस्त्र धारण करने का अधिकार भी छीन लिया गया था।
44. ब्राह्मणवाद के अधीन बेचारे शुद्र स्वार्थी ब्राह्मणों, शक्तिशाली क्षत्रियों और धनी वेश्यों के एक भयानक षड्यंत्र के शिकार मात्र बनकर रह गये।
45. क्या उसमें सुधार हो सकता था? बुद्ध जानते थे कि यह 'भगवान की बनाई हुई' सामाजिक व्यवस्था बताई जाती है, इसलिए इसमें सुधार नहीं हो सकता हैं। इसे केवल समाप्त किया जा सकता है।
46. इन्हीं कारणों से बुद्ध ने ब्राह्मणवाद को सद्धम्म का-- जीवन के सच्चे धम्म का - परम विरोधी मान कर अस्वीकार कर दिया।
4) उपनिषद् तथा उनकी शिक्षा Buddhism and Hindusim
1. उपनिषद की वैदिक-वाङ्मय का एक हिस्सा माने जाते हैं। यह वेद का हिस्सा नहीं है। यह श्रुति ब्राह्य से है
2. यह सब होने पर भी यह धार्मिक वाङ्मय का एक हिस्सा है।
3. उपनिषदों की संख्या काफी बड़ी है। कुछ महत्व के, कुछ यूं ही।
4. कुछ में वैदिक सिद्धांतियों का - ब्राह्मण पुरोहितों का काफी विरोध है।
5. सभी एक बात में सहमत थे कि वैदिक अध्ययन 'अविद्या' का ही अध्ययन है।
6. वेदों और वैदिक विज्ञान को सभी अपरा (नीचे दर्जी की) विद्या ही मानते थे।
7. वे सभी वेद को अपौरुषेय न मानने के समर्थक थे।
8. ब्राह्मणी दर्शन की ऐसी प्रधान स्थापनाओं- जैसे यज्ञ और उनके फल, श्राद्ध, और ब्राह्मण-पुरोहितों को दिए जाने वाले दोनों के माहात्म्य-- को अस्वीकार करने में भी सभी एकमत थे।
9. किंतु यह कोई उपनिषदों का मुख्य विषय न था। उसकी चर्चा का मुख्य विषय है ब्रह्म और आत्मा।
10. ब्रह्म ही वह सर्वव्यापी तत्व है जो विश्व को बांधे हुए हैं और आदमी की मुक्ति भी इसी बात में है कि उसके आत्मा को इस बात का बोध हो जाएगी वह भी ब्रह्म हैं।
11. उपनिषदों की मुख्य स्थापना यही थी कि ब्रह्म ही सत्य है, तथा 'आत्मा' और 'ब्रह्म' एक ही है। उपाधिग्रस्त होने के कारण ही आत्मा को इस बात का बोध नहीं होता कि वह ब्रह्म है।
12. प्रश्न पैदा हुआ: क्या 'ब्रह्मा' एक वास्तविकता है? उपनिषदों की सारी स्थापना इसी एक प्रश्न के उत्तर पर निर्भर करती है।
13. बुद्ध को ब्रह्म की वास्तविकता का कोई प्रमाण नहीं मिला। इसलिए उन्होंने उपनिषदों की स्थापना को अस्वीकार कर दिया।
14. ऐसा नहीं है कि स्वयं उपनिषदों के रचयिताओं से इस बारे में प्रश्न न पूछे गये हों। वे पूछे गये थे।
15. इस तरह के प्रश्न याज्ञवल्क्य जैसे महान ऋषि से भी पूछे गये थे, जिसका वृहदारण्यक उपनिषद में उतना महत्वपूर्ण स्थान है।
16. उससे पूछा गया था 'ब्रह्म क्या है? आत्मा क्या है?' याज्ञवल्क्य इतना ही उत्तर दे सका था- मैं नहीं जानता, मैं नहीं जानता- नेति, नेति।
17. बुद्ध को शंका थी कि जिस के विषय में कोई कुछ जानता ही नहीं, वह वास्तविकता कैसे हो सकती है? इसलिए उन्होंने उपनिषदों की स्थापना को भी शुद्ध कल्पना समझ अस्वीकार कर दिया।